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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


बाबू दयाशंकर वादे के रोज़ के तीन दिन बाद मकान पर पहुँचे। सतारा से गिरिजा के लिए कई अनूठे तोहफ़े लाये थे। मगर उसने इन चीज़ों को कुछ इस तरह देखा कि जैसे उनसे उसका जी भर गया है। उसका चेहरा उतरा हुआ था और होंठ सूखे थे। दो दिन से उसने कुछ नहीं खाया था। अगर चलते वक़्त दयाशंकर की आँख से आँसू की चन्द बूंदें टपक पड़ी होतीं या कम से कम चेहरा कुछ उदास और आवाज़ कुछ भारी हो गयी होती तो शायद गिरिजा उनसे न रूठती। आँसुओं की चन्द बूँदें उसके दिल में इस ख़याल को तरो-ताज़ा रखतीं कि उनके न आने का कारण चाहे और कुछ हो निष्ठुरता हरगिज नहीं है। शायद हाल पूछने के लिए उसने तार दिया होता और अपने पति को अपने सामने खैरियत से देखकर वह बरबस उनके सीने में जा चिमटती और देवताओं की कृतज्ञ होती। मगर आँखों की वह बेमौका कंजूसी और चेहरे की वह निष्ठुर मुसकान इस वक़्त उसके पहलू में खटक रही थी। दिल में ख़याल जम गया था कि मैं चाहे इनके लिए मर ही मिटूँ मगर इन्हें मेरी परवाह नहीं है। दोस्तों का आग्रह और जिद केवल बहाना है। कोई ज़बरदस्ती किसी को रोक नहीं सकता। ख़ूब! मैं तो रात की रात बैठकर काटूँ और वहाँ मज़े उड़ाये जाएँ!

बाबू दयाशंकर को रूठों के मनाने में विशेष दक्षता थी और इस मौक़े पर उन्होंने कोई बात, कोई कोशिश उठा नहीं रखी। तोहफ़े तो लाए थे मगर उनका जादू न चला। तब हाथ जोड़कर एक पैर से खड़े हुए, गुदगुदाया, तलुवे सहलाये, कुछ शोखी और शरारत की, दस बजे तक इन्हीं सब बातों में लगे रहे। इसके बाद खाने का वक़्त आया। आज उन्होंने रूखी रोटियाँ बड़ें शौक से और मामूली से कुछ ज़्यादा खायीं—गिरिजा आज हफ़्ते भर के बाद रोटियाँ नसीब हुई हैं, सतारे में रोटियों को तरस गए। पूड़ियाँ खाते-खाते आँतों में बायगोले पड़ गये। यक़ीन मानो गिरिजन, वहाँ कोई आराम न था, न कोई सैर, न कोई लुत्फ़। सैर और लुत्फ़ तो महज अपने दिल की कैफियत पर मुनहसर है। बेफिक्री हो तो चटियल मैदान में बाग़ का मज़ा आता है और तबियत को कोई फ़िक्र हो तो बाग वीराने से भी ज़्यादा उजाड़ मालूम होता है। कम्बख्त दिल तो हरदम यहीं धरा रहता था, वहाँ मज़ा क्या ख़ाक आता। तुम चाहे इन बातों को केवल बनावट समझ लो, क्योंकि मैं तुम्हारे सामने दोषी हूँ और तुम्हें अधिकार है कि मुझे झूठा, मक्कार, दग़ाबाज, वेवफ़ा, बात बनानेवाला जो चाहे समझ लो, मगर सच्चाई यही है जो मैं कह रहा हूँ। मैं जो अपना वादा पूरा नहीं कर सका, उसका कारण दोस्तों की ज़िद थी।

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