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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


गिरिजा—क्या?

दयाशंकर—अब कभी मत रूठना।

गिरिजा—यह तो टेढ़ी शर्त है मगर…मंजूर है।

दो-तीन क़दम चलने के बाद गिरिजा ने उनका हाथ पकड़ लिया और बोली—तुम्हें भी मेरी एक शर्त माननी पड़ेगी।

दयाशंकर—मैं समझ गया। तुमसे सच कहता हूँ, अब ऐसा न होगा।

दयाशंकर ने आज गिरिजा को भी अपने साथ खिलाया। वह बहुत लजायी, बहुत हीले किये, कोई सुनेगा तो क्या कहेगा, यह तुम्हें क्या हो गया है। मगर दयाशंकर ने एक न मानी और कई कौर गिरिजा को अपने हाथ से खिलाये और हर बार अपनी मुहब्बत का बेदर्दी के साथ मुआवज़ा लिया।

खाते-खाते उन्होंने हँसकर गिरिजा से कहा—मुझे न मालूम था कि तुम्हें मनाना इतना आसान है?

गिरिजा ने नीची निगाहों से देखा और मुस्करायी, मगर मुँह से कुछ न बोली।

—उर्दू ‘प्रेम पचीसी’ से
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