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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


ऐसी देवियाँ दुनिया में कितनी हैं! क्या वह इतना न जानती थी कि एक गुप्त रहस्य ज़बान पर लाकर मैं अपनी इन तकलीफ़ों का ख़ात्मा कर सकती हूँ! मगर फिर वह एहसान का बदला न हो जाएगा! मसल मशहूर है नेकी कर और दरिया में डाल। शायद उसके दिल में कभी यह ख़्याल ही नहीं आया कि मैंने रेवती पर कोई एहसान किया।

यह वज़ादार, आन पर मरनेवाली औरत पति के मरने के बाद तीन साल तक जिन्दा रही। यह ज़माना उसने जिस तकलीफ़ से काटा उसे याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कई-कई दिन निराहार बीत जाते। कभी गोबर न मिलता, कभी कोई उपले चुरा ले जाता। ईश्वर की मर्जी! किसी की घर भरा हुआ है, खानेवाला नहीं। कोई यों रो-रोकर ज़िन्दगी काटता है।

बुढ़िया ने यह सब दुख झेला मगर किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया।

हीरामणि की तीसवीं सालगिरह आयी। ढोल की सुहानी आवाज़ सुनायी देने लगी। एक तरफ़ घी की पूड़ियाँ पक रही थीं, दूसरी तरफ़ तेल की। घी की मोटे ब्राह्मणों के लिए, तेल की ग़रीब-भूखे-नीचों के लिए।

अचानक एक औरत ने रेवती से आकर कहा—ठकुराइन जाने कैसी हुई जाती हैं। तुम्हें बुला रही हैं।

रेवती ने दिल में कहा—आज तो ख़ैरियत से काटना, कहीं बुढ़िया मर न रही हो।

यह सोचकर वह बुढ़िया के पास न गयी। हीरामणि ने जब देखा, अम्माँ नहीं जाना चाहती तो खुद चला। ठकुराइन पर उसे कुछ दिनों से दया आने लगी थी। मगर रेवती मकान के दरवाज़े तक उसे मना करने आयी। या रहमदिल, नेक-मिजा़ज, शरीफ रेवती थी।

हीरामणि ठकुराइन के मकान पर पहुँचा तो वहाँ बिल्कुल सन्नाटा छाया हुआ था। बूढ़ी औरत का चेहरा पीला था और जान निकलने की हालत उस पर छाई हुई थी। हीरामणि ने जो से कहा—ठकुराइन, मैं हूँ हीरामणि।

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