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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मगर फिर उसे ख़याल आया, मेरी सरकशी पर सरदार और भी गुस्सा हो जायेंगे और यक़ीनन मुझसे तलवार शमशीर के ज़ोर से छीन ली जायेगी। ऐसी हालत में मेरे ऊपर जान छिड़कने वाले सिपाही कब अपने को काबू में रख सकेंगे। ज़रूर आपस में खून की नदियाँ बहेंगी और भाई-भाई का सिर काटेगा। खुदा न करे कि मेरे सबब से यह दर्दनाक मार-काट हो। यह सोचकर उसने चुपके से शमशीर सरदार नमकख़ोर के बग़ल में रख दी और खुद सर नीचा किये जब्त की इन्तहाई कूवत से गुस्से को दबाता हुआ ख़ेमें से बाहर निकल आया।

मसऊद पर सारी फ़ौज गर्व करती थी और उस पर जानें वारने के लिए हथेली में सर लिये रहती थी। जिस वक़्त उसने तलवार खोली है, दो हज़ार सूरमा सिपाही मियान पर हाथ रक्खे और शोले बरसाती हुई आँखों से ताकते, कनौतियाँ बदल रहे थे। मसऊद के एक ज़रा से इशारे की देर थी और दम के दम में लाशों के ढेर लग जाते। मगर मसऊद बहादुरी ही में बेजोड़ न था, जब़्त और धीरज में भी उसका जवाब न था। उसने यह ज़िल्लत और बदनामी सब गवारा की, तलवार देना गवारा किया, बग़ावत का इलज़ाम लेना गवारा किया और अपने साथियों के सामने सर झुकाना गवारा किया मगर यह गवारा न किया कि उसके कारण फ़ौज में बग़ावत और हुक्म न मानने का ख़याल पैदा हो। और ऐसे नाजुक वक़्त में जब कि कितने ही दिलेर जिन्होंने लड़ाई की आजमाइश में अपनी बहादुरी का सबूत दिया था, जब्त हाथ से खो बैठते और गुस्से की हालत में एक-दूसरे के गले काटते, मसऊद खामोश रहा और उसके पैर नहीं डगमगाये। उसकी पेशानी पर ज़रा भी बल नहीं आया, उसके तेवर ज़रा भी न बदले। उसने खून बरसाती हुई आँखों से दोस्तों को अलविदा कहा और हसरत भरा दिल लिये उठा और एक गुफ़ा में छिप बैठा और जब सूरज डूबने पर वहाँ से उठा तो उसके दिल ने फ़ैसला कर लिया था कि यह बदनामी का दाग़ माथे से मिटाऊँगा और डाहियों को शर्मिन्दगी के गड्ढे में गिराऊँगा।

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