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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


एक रोज़ शाम के वक़्त मैं अपने अँधेरे कमरे में लेटा हुआ कल्पना-लोक की सैर कर रहा था कि सामने वाले मकान से गाने की आवाज़ आयी। आह, क्या आवाज़ थी तीर की तरह दिल में चुभी जाती थी, स्वर कितना करुण था! इस वक़्त मुझे अन्दाज़ा हुआ कि गाने में क्या असर होता है। तमाम रोंगटे खड़े हो गये, कलेजा मसोसने लगा और दिल पर एक अजीब वेदना-सी छा गयी। आँखों से आँसू बहने लगे, हाय, यह लीला का प्यारा गीत था—

पिया मिलन है कठिन बावरी।

मुझसे ज़ब्त न हो सका, मैं एक उन्माद की सी दशा में उठा और जाकर सामने वाले मकान का दरवाज़ा खटखटाया। मुझे उस वक़्त चेतना न रही कि एक अजनबी आदमी के मकान पर आकर खड़े हो जाना और उसके एकांत में विघ्न डालना परले दर्जे की असभ्यता है।

एक बुढ़िया ने दरवाजा खोल दिया और मुझे खड़े देखकर लपकी हुई अन्दर गयी। मैं भी उसके साथ चला गया। देहलीज़ तय करते ही एक बड़े कमरे में पहुँचा। उस पर एक सफ़ेद फ़र्श बिछा हुआ था। गावतकिये भी रखे थे। दीवारों पर खूबसूरत तस्वीरें लटक रही थीं और एक सोलह-सत्रह साल का सुन्दर नौजवान जिसकी अभी मसें भीग रही थीं मसनद के क़रीब बैठा हुआ हारमोनियम पर गा रहा था। मैं कसम खा सकता हूँ कि ऐसा सुन्दर स्वस्थ नौजवान मेरी नजर से कभी नहीं गुज़रा। चाल-ढाल से सिख मालूम होता था। मुझे देखते ही चौंक पड़ा और हारमोनियम छोड़कर खड़ा हो गया। शर्म से सिर झुका लिया और कुछ घबराया हुआ-सा नज़र आने लगा। मैंने कहा—माफ़ कीजिएगा, मैंने आपको बड़ी तकलीफ़ दी। आप इस फन के उस्ताद मालूम होते हैं। ख़ासकर जो चीज़ अभी आप गा रहे थे, वह मुझे पसन्द है।

नौजवान ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी तरफ़ देखा और सर नीचा कर लिया और होंठों ही में कुछ अपने नौसिखिएपन की बात कही। मैंने फिर पूछा—आप यहाँ कब से हैं?

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