कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
वृन्दा की आवाज़ में भी लोच भी है और दर्द भी। उसमें बेचैन दिल को तसकीन देनेवाली ताक़त भी है और सोये हुए भावों को जगा देने की शक्ति भी। सुबह के वक़्त पूरब की गुलाबी आभा में सर उठाये हुए फूलों से लदी हुई डाली पर बैठकर गाने वाले बुलबुल की चहक में भी यह घुलावट नहीं होती। यह वह गाना है जिसे सुनकर अकलुष आत्माएँ सिर धुनने लगती हैं। उसकी तान कानों को छेदती हुई जिगर में जा पहुँचती है—
मैं बौरी पग-पग पर भटकूँ,
काहू की कुछ नाही ख़बर।
बता दे कोई प्रेमनगर की डगर।
यकायक किसी ने दरवाज़ा खटखटाया और कई आदमी पुकारने लगे—किसका मकान है, दरवाजा खोलो।
वृन्दा चुप हो गयी। प्रेमसिंह ने उठकर दरवाजा खोल दिया। दरवाजे के सहन में सिपाहियों की एक भीड़ थी। दरवाज़ा खुलते ही कई सिपाही देहलीज में घुस आये और बोले—तुम्हारे घर में कोई गानेवाली रहती है, हम उसका गाना सुनेंगे।
प्रेमसिंह ने कड़ी आवाज में कहा—हमारे यहाँ कोई गाने वाली नहीं है।
इस पर कई सिपाहियों ने प्रेमसिंह को पकड़ लिया और बोले—तेरे घर से गाने की आवाज आती थी।
एक सिपाही—बताता क्यों नहीं रे, कौन गा रहा है?
प्रेमसिंह—मेरी लड़की गा रही थी। मगर वह गाने वाली नहीं है।
सिपाही—कोई हो, हम तो आज गाना सुनेंगे।
गुस्से से प्रेमसिंह काँपने लगा, होंठ चबाकर बोला—यारों हमने भी अपनी ज़िन्दगी फ़ौज ही में काटी है मगर कभी…
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