कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
जब तक वह दिया झिलमिलाता और टिमटिमाता, हमदर्द लहरों से झकोरे लेता दिखाई दिया। मोहिनी टकटकी लगाये खोयी-सी उसकी तरफ़ ताकती रही। जब वह आँख से ओझल हो गया तो वह बेचैनी से उठ खड़ी हुई और बोली—मैं किनारे पर जाकर उस दिये को देखूँगी।
जिस तरह हलवाई की मनभावन पुकार सुनकर बच्चा घर से बाहर निकल पड़ता है और चाव-भरी आँखों से देखता और अधीर आवाजों से पुकारता उस नेमत के थाल की तरफ़ दौड़ता है, उसी जोश और चाव के साथ मोहिनी नदी के किनारे चली।
बाग़ से नदी तक सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। हम दोनों तेज़ी के साथ नीचे उतरे और किनारे पहुँचते ही मोहिनी ने खुशी के मारे उछलकर ज़ोर से कहा—अभी है! अभी है! देखो वह निकल गया!
वह बच्चों का-सा उत्साह और उद्विग्न अधीरता जो मोहिनी के चेहरे पर उस समय थी, मुझे कभी न भूलेगी। मेरे दिल में सवाल पैदा हुआ, उस दिये से ऐसा हार्दिक संबंध, ऐसी विह्वलता क्यों? मुझ जैसा कवित्वशून्य व्यक्ति उस पहेली को जरा भी न बूझ सका।
मेरे हृदय में आशंकायें पैदा हुईं। अँधेरी रात है, घटायें उमड़ी हुईं, नदी बाढ़ पर, हवा तेज़, यहाँ इस वक़्त ठहरना ठीक नहीं। मगर मोहिनी! वह चाव-भरे भोलेपन की तस्वीर, उसी दिये की तरफ़ आँखें लगाये चुपचाप खड़ी थी और वह उदास दिया ज्यों का त्यों हिलता मचलता चला जाता था, न जाने कहाँ किस देश को!
मगर थोड़ी देर के बाद वह दिया आँखों से ओझल हो गया। मोहिनी ने निराश स्वर में पूछा—गया! बुझ गया होगा?
और इसके पहले कि मैं जवाब दूँ वह उस डोंगी के पास चली गई, जिस पर बैठकर हम कभी-कभी नदी की सैरें किया करते थे, और प्यार से मेरे गले लिपटकर बोली—मैं उस दिये को देखने जाऊँगी कि वह कहाँ जा रहा है, किस देश को।
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