कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
साजन बसत कौन सी नगरी मैं बौरी ना जानूँ
ना मोहे आस मिलन की उससे ऐसी प्रीत भली
मैं साजन से मिलन चली
मोहिनी ख़ामोश हुई तो चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था और उस सन्नाटे में एक बहुत मद्धिम, रसीला स्वप्निल-स्वर क्षितिज के उस पार से या नदी के नीचे से या हवा के झोंकों के साथ आता हुआ मन के कानों को सुनाई देता था।
मैं इस गीत से इतना प्रभावित हुआ कि ज़रा देर के लिए मुझे ख़याल न रहा कि कहाँ हूँ और कहाँ जा रहा हूँ। दिल और दिमाग़ में वही राग गूँज रहा था। अचानक मोहिनी ने कहा—उस दिये को देखो। मैंने दिये की तरफ़ देखा। उसकी रोशनी मंद हो गई थी और आयु की पूँजी खत्म हो चली थी। आख़िर वह एक बार ज़रा भभका और बुझ गया। जिस तरह पानी की बूँद नदी में गिरकर ग़ायब हो जाती है, उसी तरह अँधेरे के फैलाव में उस दिये की हस्ती ग़ायब हो गई! मोहिनी ने धीमे से कहा, अब नहीं दिखाई देता! बुझ गया! यह कहकर उसने एक ठण्डी साँस ली। दर्द उमड़ आया। आँसुओं से गला फँस गया, ज़बान से सिर्फ़ इतना निकला, क्या यही उसकी आख़िरी मंज़िल थी? और आँखों से आँसू गिरने लगे।
मेरी आँखों के सामने से पर्दा-सा हट गया। मोहिनी की बेचैनी और उत्कंठा, अधीरता और उदासी का रहस्य समझ में आ गया और बरबस मेरी आँखों से भी आँसू की चंद बूंदें टपक पड़ीं। क्या उस शोर-भरे, ख़तरनाक, तूफानी सफ़र की यही आख़िरी मंजिल थी?
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