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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


परमाल ने कहा—मैं तुमसे कुछ माँगूँ? दोगे?

आल्हा ने सादगी से जवाब दिया—फ़रमाइए।

परमाल—इनकार तो न करोगे?

आल्हा ने कनखियों से माहिल की तरफ़ देखा समझ गया कि इस वक़्त कुछ न कुछ दाल में काला है। इसके चेहरे पर यह मुस्कराहट क्यों? गूलर में यह फूल क्यों लगे? क्या मेरी वफ़ादारी का इम्तहान लिया जा रहा है?

जोश से बोला—महाराज, मैं आपकी ज़बान से ऐसे सवाल सुनने का आदी नहीं हूँ। आप मेरे संरक्षक, मेरे पालनहार, मेरे राजा हैं। आपकी भँवों के इशारे पर मैं आग में कूद सकता हूँ और मौत से लड़ सकता हूँ। आपकी आज्ञा पाकर में असम्भव को सम्भव बना सकता हूँ आप मुझसे ऐसे सवाल न करें।

परमाल—शाबाश, मुझे तुमसे ऐसी ही उम्मीद है।

आल्हा—मुझे क्या हुक्म मिलता है?

परमाल—तुम्हारे पास नाहर घोड़ा है?

आल्हा ने ‘जी हाँ’ कहकर माहिल की तरफ़ भयानक गुस्से भरी हुई आँखों से देखा।

परमाल—अगर तुम्हें बुरा न लगे तो उसे मेरी सवारी के लिए दे दो।

आल्हा कुछ जवाब न दे सका, सोचने लगा, मैंने अभी वादा किया है कि इनकार न करूँगा। मैंने बात हारी है। मुझे इनकार न करना चाहिए। निश्चय ही इस वक़्त मेरी स्वामिभक्ति की परीक्षा ली जा रही है। मेरा इनकार इस समय बहुत बेमौक़ा और ख़तरनाक है। इसका तो कुछ ग़म नहीं। मगर मैं इनकार किस मुँह से करूँ, बेवफ़ा न कहलाऊँगा? मेरा और राजा का सम्बन्ध केवल स्वामी और सेवक का ही नहीं है, मैं उनकी गोद में खेला हूँ। जब मेरे हाथ कमजोर थे, और पाँव में खड़े होने का बूता न था, तब उन्होंने मेरे ज़ुल्म सहे हैं, क्या मैं इनकार कर सकता हूँ?

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