कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
बरसात के दिन थे, नदी-नाले उमड़े हुए थे। इन्द्र की उदारताओं से मालामाल होकर जमीन फूली नहीं समाती थी। पेड़ों पर मोरों की रसीली झनकारें सुनाई देती थीं और खेतों में निश्चिन्तता की शराब से मतवाले किसान मल्हार की तानें अलाप रहे थे। पहाड़ियों की घनी हरियावल, पानी की दर्पन–जैसी सतह और जंगली बेल-बूटों के बनाव-सँवार से प्रकृति पर एक यौवन बरस रहा था। मैदानों की ठंडी-ठंडी मस्त हवा जंगली फूलों की मीठी मीठी, सुहानी, आत्मा को उल्लास देनेवाली महक और खेतों की लहराती हुई रंग-बिरंग उपज ने दिलों में आरजुओं का एक तूफ़ान उठा दिया था। ऐसे मुबारक मौसम में आल्हा ने महोबा को आख़िरी सलाम किया। दोनों भाइयों की आँखें रोते-रोते लाल हो गयी थीं क्योंकि आज उनसे उनका देश छूट रहा था। इन्हीं गलियों में उन्होंने घुटने के बल चलना सीखा था, इन्हीं तालाबों में कागज की नावें चलाई थीं, यही जवानी की बेफ़िक्रियों के मज़े लूटे थे। इनसे अब हमेशा के लिए नाता टूटता था। दोनों भाई आगे बढ़ते जाते थे, मगर बहुत धीरे-धीरे। यह ख़याल था कि शायद परमाल ने रुठनेवालों को मनाने के लिए अपना कोई भरोसे का आदमी भेजा होगा। घोड़ों को सम्हाले हुए थे, मगर जब महोबे की पहाड़ियों का आख़िरी निशान आँखों से ओझल हो गया तो उम्मीद की आख़िरी झलक भी गायब हो गयी। उन्होंने जिनका कोई देश न था एक ठंडी साँस ली और घोड़े बढ़ा दिये। उनके निर्वासन का समाचार बहुत जल्द चारों तरफ़ फैल गया। उनके लिए हर दरबार में जगह थी, चारों तरफ़ से राजाओं के संदेश आने लगे। कन्नौज के राजा जयचन्द ने अपने राजकुमार को उनसे मिलने के लिए भेजा। संदेशों से जो काम न निकला वह इस मुलाकात ने पूरा कर दिया। राजकुमार की खातिरदारियाँ और आवभगत दोनों भाइयों को कन्नौज खींच ले गयी। जयचन्द आँखें बिछाये बैठा था। आल्हा को अपना सेनापति बना दिया।
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