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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


लुईसा बोल उठी– सन्तरी!

विनती का एक शब्द भी उसके मुँह से न निकला। वह अब निराशा की उस सीमा पर पहुँच चुकी थी जब आदमी की वाक्शक्ति अकेले शब्दों तक सीमित हो जाती है। मैंने सहानुभूति के स्वर में कहा– बड़ा मुश्किल मामला है।

‘सन्तरी, मेरी इज़्ज़त बचा लो। मेरे सामर्थ्य में जो कुछ है वह तुम्हारे लिए करने को तैयार हूँ।’

मैंने स्वाभिमानपूर्वक कहा– मिस लुईसा, मुझे लालच न दीजिए, मैं लालची नहीं हूँ। मैं सिर्फ इसलिए मजबूर हूँ कि फ़ौजी क़ानून को तोड़ना एक सिपाही के लिए दुनिया में सबसे बड़ा जुर्म है।

‘क्या एक लड़की के सम्मान की रक्षा करना नैतिक क़ानून नहीं है? क्या फ़ौजी क़ानून नैतिक क़ानून से भी बड़ा है?’ लुईसा ने ज़रा जोश में भरकर कहा।

इस सवाल का मेरे पास क्या जवाब था। मुझसे कोई जवाब न बन पड़ा। फ़ौजी क़ानून अस्थाई, परिवर्तनशील होता है, परिवेश के अधीन होता है। नैतिक क़ानून अटल और सनातन होता है, परिवेश से ऊपर। मैंने कायल होकर कहा– जाओ मिस लुईसा, तुम अब आज़ाद हो, तुमने मुझे लाजवाब कर दिया। मैं फ़ौजी क़ानून तोड़कर इस नैतिक कर्त्तव्य को पूरा करूँगा। मगर तुमसे केवल यही प्रार्थना है कि आगे फिर कभी किसी सिपाही को नैतिक कर्त्तव्य का उपदेश न देना क्योंकि फ़ौजी क़ानून फ़ौजी क़ानून है। फ़ौज किसी नैतिक, आत्मिक या ईश्वरीय क़ानून की परवाह नहीं करती।

लुईसा ने फिर मेरा हाथ पकड़ लिया और एहसान में डूबे हुए लहजे में बोली– सन्तरी, भगवान् तुम्हें इसका फल दे।

मगर फ़ौरन उसे संदेह हुआ कि शायद यह सिपाही आइन्दा किसी मौके पर यह भेद न खोल दे इसलिए अपने और भी इत्मीनान के ख़याल से उसने कहा– मेरी आबरू अब तुम्हारे हाथ है।

मैंने विश्वास दिलाने वाले ढंग से कहा– मेरी ओर से आप बिल्कुल इत्मीनान रखिए।

‘कभी किसी से नहीं कहोगे न?’

‘कभी नहीं।’

‘कभी नहीं?’

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