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कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
कल की बात है, चार स्वाराजियों ने मेरा तांगा किया, कटरे से स्टेशन चले, हुकुम मिला कि तेज चलो। रास्ते-भर गांधीजी की जय! गांधीजी की जय! पुकारते गए। कोई साहब बाहर से आ रहे थे और बड़ी भीड़ें और जुलूस थे। कठपुतली की तरह रास्ते-,भर उछलते-कूदते गए। स्टेशन पहुँचकर मुश्किल से चार आने दिए। मैंने पूर किराया मांगा, मगर वहाँ गांधी जी की जय! गांधी जी की जय के सिवाय क्या था! मैं चिल्लाया मेरा पेट! मेरा तांगा थिएटर का स्टेज था, आप नाचे-कूदे और अब मजदूरी नहीं देते! मगर मैं चिल्लाता ही रहा, वह भीड़ में गायब हो गये। मैं तो समझता हूँ कि लोग पागल हो गए हैं, स्वराज मांगते हैं, इन्हीं हरकतों पर स्वराज मिलेगा! ऐ हुजूर अजब हवा चल रही है। सुधार तो करते नही, स्वराज माँगते है। अपने करम तो पहले दुरुस्त हो लें। मेरे लड़के को बरग़लाया, उसने सब कपड़े इकटठे किए और लगा ज़िद करने कि आग लाग दूँगा। पहले तो मैंने समझाया कि मैं गरीब आदमी हूँ, कहा से और कपड़े लाऊंगा, मगर जब वह न माना तो मैंने गिराकर उसको ख़ूब मारा। फिर क्या था होश ठिकाने हो गए। हुजूर जब वक़्त आएगा तो हमी इक्के-ताँगेवाले स्वराज हाँककर लायेंगे। मोटर पर स्वराज हर्गिज़ न आएगा। पहले हमको पूरी मज़दूरी दो फिर स्वराज माँगो। हुजूर औरतें तो औरतें हम उनसे न ज़बान खोल सकते हैं न कुछ कह सकते हैं, वह जो कुछ दे देती है, लेना पड़ता है। मगर कोई-कोई नकली शरीफ लोग औरतों के भी कान काटते हैं। सवार होने से पहले हमारे नम्बर देखते हैं, अगर कोई चील रास्ते में उनकी लापरवाही से गिर जाय तो वह भी हमारे सिर ठोंकते हैं और मज़ा यह कि किराया कम दे तो हम उफ न करें। एक बार का जिक्र सुनिए, एक नक़ली ‘वेल-वेल’ करके लाट साहब के दफ्तर गये, मुझको बाहर छोड़ा और कहा कि एक मिनट में आते हैं, वह दिन है कि आज तक इन्तज़ार ही कर रहा हूँ। अगर यह हज़रत कही दिखाई दिये तो एक बार तो दिल खोलकर बदला ले लूँगा फिर चाहे जो कुछ हो।
अब न पहले के-से मेहरबान रहे न पहले की-सी हालत। खुदा जाने शराफ़त कहाँ गायब हो गई। मोटर के साथ हवा हुई जाती है। ऐ हुजूर, आप ही जैसे साहब लोग हम इक्केवालों की कद्र करते थे, हमसे भी इज़्ज़त से पेश आते थे। अब वह वक़्त है कि हम लोग छोटे आदमी हैं, हर बात पर गाली मिलती है, गुस्सा सहना पड़ता है। कल दो बाबू लोग जा रहे थे, मैंने पूछा, तांगा…तो एक ने कहा, नहीं, हमको जल्दी है। शायद यह मज़ाक होगा। आगे चलकर एक साहब पूछते हैं कि टैक्सी कहाँ मिलेगी? अब कहिए यह छोटा शहर है, हर जगह जल्द से जल्द हम लोग पहुँचा देते हैं। इस पर भी हमीं बतलाएँ कि टैक्सी कहाँ मिलेगी। अन्धेर है अन्धेर! ख़याल तो कीजिए यह नन्ही सी जान घोड़ों की, हम और हमारे बाल-बच्चे और चौदह आने घंटा। हुजूर, चौदह आने में तो घोड़ी को एक क़मची भी लगाने को जी नहीं चाहता। हुजूर हमें तो कोई चौबीस घंटे के वास्ते मोल ले ले।
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