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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


इस वक़्त मेरे दिल में क्या ख्याल आ रहे थे। यह याद नहीं पर मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया था। ऐसा मालूम होता था कि यह तीनो इंसान नहीं यमदूत हैं। गुस्से की जगह दिल में डर समा गया था। इस वक़्त अगर कोई ग़ैबी ताकत मेरे बन्धनों को काट देती, मेरे हाथों में आबदार खंज़र दे देती तो भी मैं ज़मीन पर बैठकर अपनी ज़िल्लत और बेकसी पर आँसू बहाने के सिवा और कुछ न कर सकती। मुझे ख़्याल आता था कि शायद खुदा की तरफ़ से मुझ पर यह क़हर नाज़िल हुआ है। शायद मेरी बेनमाज़ी और बेदीनी की यह सज़ा मिल रही है। मैं अपनी पिछली ज़िन्दगी पर निगाह डाल रही थी कि मुझसे कौन सी गलती हुई है जिसकी यह सजा है। मुझे इस हालत में छोड़कर तीनों सूरते कमरे में चली गयीं। मैंने समझा मेरी सज़ा ख़त्म हुई लेकिन क्या यह सब मुझे यो ही बँधा रक्खेंगे? लौडियाँ मुझे इस हालत में देख ले तो क्या कहें? नहीं अब मैं इस घर में रहने के क़ाबिल ही नहीं। मैं सोच रही थी कि रस्सियाँ क्योंकर खोलूँ मगर अफ़सोस, मुझे न मालूम था कि अभी तक जो मेरी गति हुई है वह आने वाली बेरहमियों का सिर्फ़ बयाना है। मैं अब तक न जानती थी कि वह छोटा आदमी कितना बेरहम, कितना क़ातिल है। मैं अपने दिल से बहस कर रही थी कि अपनी इस ज़िल्लत का इलज़ाम मुझ पर कहाँ तक है। अगर मैं हसीना की उन दिल जलानेवाली बातों को जबाव न देती तो क्या यह नौबत, न आती? आती और ज़रूर आती। वह काली नागिन मुझे डसने का इरादा करके चली थी। इसलिए उसने ऐसे दिलदुखाने वाले लहजे में ही बात शुरू की थी। मैं गुस्से में आकर उसको लान-तान करूँ और उसे मुझे ज़लील करने का बहाना मिल जाय।

पानी जोर से बरसने लगा था, बौछारों से मेरा सारा शरीर तर हो गया था। सामने गहरा अँधेरा था। मैं कान लगाये सुन रही थी कि अन्दर क्या मिसकौट हो रही है मगर मेह की सनसनाहट के कारण आवाज़े साफ़ न सुनायी देती थीं। इतने में लालटेन फिर से बरामदे में आयी और तीनों डरावनी सूरते फिर सामने आकर खड़ी हो गयीं। अब की उस ख़ूनपरी के हाथों में एक पतली-सी क़मची थी उसके तेवर देखकर मेरा ख़ूनसर्द हो गया। उसकी आँखों में एक ख़ूनपीने वाली वहशत एक कातिल पागलपन दिखाई दे रहा था। मेरी तरफ़ शरारत– भरी नज़रों से देखकर बोली बेगम साहबा, मैं तुम्हारी बदजबानियों का ऐसा सबक देना चाहती हूँ जो तुम्हें सारी उम्र याद रहे। और मेरे गुरू ने बतलाया है कि क़मची से ज़्यादा देर तक ठहरने वाला और कोई सबक नहीं होता।

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