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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


ज़रीना ने सईद को ऐसी हिकारत-भरी आँखों से देखा गोया वह उसका गुलाम है। खुदा जाने उस पर उसने क्या मन्तर मार दिया था कि उसमें ख़ानदानी ग़ैरत और बड़ाई ओ इन्सानियत का ज़रा भी एहसास बाकी न रहा था। वह शायद उसे गुस्से जैसे मर्दाना जज्बे के क़ाबिल ही न समझती थी। हुलिया पहचानने वाले कितनी गलती करते हैं क्योंकि दिखायी कुछ पड़ता है, अन्दर कुछ होता है! बाहर के ऐसे सुन्दर रूप के परदे में इतनी बेरहमी, इतनी निष्ठुरता! कोई शक नहीं, रूप हुलिया पहचानने की विद्या का दुश्मन है। बोली– अच्छा तो अब आपको मुझ पर गुस्सा आने लगा! क्यों न हो, आख़िर निकाह तो आपने बेगम ही से किया है। मैं तो हया– फरोश कुतिया ही ठहरी!

सईद– तुम ताने देती हो और मुझसे यह ख़ून नहीं देखा जाता।

ज़रीना– तो यह क़मची हाथ में लो, और इसे गिनकर सौ लगाओ। गुस्सा उतर जायगा, इसका यही इलाज है।

सईद– फिर वही मजाक़।

ज़रीना– नहीं, मैं मज़ाक नहीं करती।

सईद ने क़मची लेने को हाथ बढ़ाया मगर मालूम नहीं ज़रीना को क्या शुबहा पैदा हुआ, उसने समझा शायद वह क़मची को तोड़ कर फेंक देंगे। कमची हटा ली और बोली– अच्छा मुझसे यह दगा! तो लो अब मैं ही हाथों की सफाई दिखाती हूँ। यह कहकर उस बेदर्द ने मुझे बेतहाशा कमचियां मारना शुरू कीं। मैं दर्द से ऐंठ-ऐंठकर चीख रही थी। उसके पैरों पड़ती थी, मिन्नते करती थी, अपने किये पर शर्मिन्दा थी, दुआएं देती थी, पीर और पैगम्बर का वास्ता देती थी, पर उस क़ातिल को ज़रा भी रहम न आता था। सईद काठ के पुतले की तरह दर्दोसितम का यह नज़्ज़ारा आँखों से देख रहा था और उसको जोश न आता था। शायद मेरा बड़े-से-बड़े दुश्मन भी मेरे रोने-धोने पर तरस खाता मेरी पीठ छिलकर लहू-लुहान हो गयी, जख़म पड़ते थे, हरेक चोट आग के शोले की तरह बदन पर लगती थी। मालूम नहीं उसने मुझे कितने दर्रे लगाये, यहाँ तक कि क़मची को मुझ पर रहम आ गया, वह फटकर टूट गयी। लकड़ी का कलेजा फट गया मगर इन्सान का दिल न पिघला।

मुझे इस तरह जलील और तबाह करके तीनों ख़बीस रुहें वहाँ से रुख़सत हो गयीं। सईद के नौकर ने चलते वक़्त मेरी रस्सियां खोल दीं। मैं कहाँ जाती? उस घर में क्योंकर क़दम रखती?

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