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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

मोटेराम जी शास्त्री

पण्डित मोटेराम जी शास्त्री को कौन नहीं जानता? आप अधिकारियों का रुख़ देखकर काम करते हैं। स्वदेशी आन्दोलन के दिनों में आपने उस आन्दोलन का ख़ूब विरोध किया था। स्वराज्य आन्दोलन के दिनों में भी आपने अधिकारियों से राजभक्ति की सनद हासिल की थी। मगर जब इतनी उछल-कूद पर उनकी तक़दीर की मीठी नींद न टूटी, और अध्यापन-कार्य से पिण्ड न छूटा, तो अन्त में आपनी एक नई तदबीर सोची। घर जाकर धर्मपत्नी जी से बोले– इन बूढ़े तोतों को रटाते-रटाते मेरी खोपड़ी पच्ची हुई जाती है। इतने दिनों विद्या-दान देने का क्या फल मिला जो और आगे कुछ मिलने की आशा करूं।

धर्मपत्नी ने चिन्तित होकर कहा– भोजनों का भी तो कोई सहारा चाहिए।

मोटेराम– तुम्हें जब देखो, पेट ही की फ्रिक पड़ी रहती है। कोई ऐसा विरला ही दिन जाता होगा कि निमन्त्रण न मिलते हों, और चाहे कोई निन्दा करें, पर मैं परोसा लिये बिना नहीं आता हूँ। क्या आज ही सब यजमान मरे जाते हैं? मगर जन्म-भर पेट ही जिलया तो क्या किया। संसार का कुछ सुख भी तो भोगना चाहिए। मैंने वैद्य बनने का निश्चय किया है।

स्त्री ने आश्चर्य से कहा– वैद्य बनोगे, कुछ वैद्यकी पढ़ी भी है?

मोटे०– वैद्यक पढने से कुछ नहीं होता, संसार में विद्या का इतना महत्व नहीं जितना बुद्धि का। दो-चार सीधे-सादे लटके है, बस और कुछ नही। आज ही अपने नाम के आगे भिषगाचार्य बढ़ा लूंगा, कौन पूछने आता है, तुम भिषगाचार्य हो या नही। किसी को क्या गरज पड़ी है जो मेरी परिक्षा लेता फिरे। एक मोटा-सा साइनबोर्ड बनवा लूँगा। उस पर शब्द लिखें होगे– यहा स्त्री पुरुषों के गुप्त रोगों की चिकित्सा विशेष रूप से की जाती है। दो-चार पैसे का हड़-बहेड़ा-आँवला कूट छानकर रख लूंगा। बस, इस काम के लिए इतना सामान पर्याप्त है। हाँ, समाचारपत्रों में विज्ञापन दूँगा और नोटिस बँटवाऊँगा। उसमें लंका, मद्रास, रंगून, कराची आदि दूरस्थ स्थानों के सज्जनों की चिटिठयां दर्ज की जायेंगी। ये मेरे चिकित्सा-कौशल के साक्षी होंगे जनता को क्या पड़ी है कि वह इस बात का पता लगाती फिरे कि उन स्थानों में इन नामों के मनुष्य रहते भी है, या नहीं फिर देखों वैद्य की कैसी चलती है।

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