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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


ख़ां साहब बड़ी मुश्किल में फँसे। अब बचाव का कोई उपाय न था। कहना पड़ा– जैसा हुजूर का हुक्म, हुजूर के साथ ही चला चलूँगा। मगर मुझे अभी ज़रा देर है हुजूर।

काटन– ओ कुछ परवाह नहीं, हम आपके लिए एक हफ़्ता ठहर सकता है। अच्छा सलाम। आज ही आप अपने दोस्त को जगह का इन्तज़ाम करने को लिख दें। आज के सातवें दिन हम और आप साथ चलेगा। हम आपको रेलवे स्टेशन पर मिलेगा।

ख़ां साहब ने सलाम किया, और बाहर निकले। तांगे वाले से कहा– कुँअर शमशेर सिंह की कोठी पर चलो।

कुँअर शमशेर सिंह खानदानी रईस थे। उन्हें अभी तक अंग्रेज़ी रहन-सहन की हवा न लगी थी। दस बजे दिन तक सोना, फिर दोस्तों और मुसाहिबों के साथ गपशप करना, दो बजे खाना खाकर फिर सोना, शाम को चौक की हवा खाना और घर आकर बारह-एक बजे तक किसी परी का मुजरा देखना, यही उनकी दिनचर्या थी। दुनिया में क्या होता है, इसकी उन्हें कुछ ख़बर न होती थी। या हुई भी तो सुनी-सुनाई। ख़ां साहब उनके दोस्तों में थे।

जिस वक़्त ख़ां साहब कोठी में पहुँचे दस बज गये थे, कुँअर साहब बाहर निकल आये थे, मित्रगण जमा थे। ख़ां साहब को देखते ही कुँअर साहब ने पूछा– कहिए ख़ां, साहब, किधर से?

ख़ां साहब– ज़रा साहब से मिलने गया था। कई दिन बुला-बुला भेजा, मगर फुर्सत ही न मिलती थीं। आज उनका आदमी जबर्जस्ती खींच ले गया। क्या करता, जाना ही पड़ा। कहाँ तक बेरुखी करूँ।

कुँअर– यार, तुम न जाने अफसरों पर क्या जादू कर देते हो कि जो आता है तुम्हारा दम भरने लगता है। मुझे वह मन्त्र क्यों नहीं सिखा देते।

ख़ां– मुझे खुद ही नहीं मालूम कि क्यों हुक्काम मुझ पर इतने मेहरबान रहते हैं। आपको यक़ीन न आवेगा, मेरी आवाज़ सुनते ही कमरे के दरवाज़े पर आकर खड़े हो गये और ले जाकर अपनी खा़स कुर्सी पर बैठा दिया।

कुँअर– अपनी खास कुर्सी पर?

ख़ां– हाँ साहब, हैरत में आ गया, मगर बैठना ही पड़ा। फिर सिगार मंगवाया, इलाइची, मेवे, चाय सभी कुछ आ गए। यों कहिए कि खाँसी दावत हो गई। यह मेहमानदारी देखकर मैं दंग रह गया।

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