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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


रामेश्वरी– कह दो कि हमारे भतीजे का मुंडन हैं, हम एक सप्ताह तक नहीं चल सकते। बस, छुट्टी हुई।

कुँअर–  (हँसकर) कितना आसान कर दिया है आपने इस समस्या को ऐसा हो सकता है कहीं। कहीं मुँह दिखाने लायक न रहूँगा।

सुशीला– क्यों, हो सकने को क्या हुआ? तुम उसके गुलाम तो नहीं हो?

कुँअर– तुम लोग बाहर तो निकलती-पैठती नहीं हो, तुम्हें क्या मालूम कि अंग्रेजों के विचार कैसे होते हैं।

रामेश्वरी– अरे भगवान्! आख़िर उसके कोई लड़का-बाला है, या निगोड़ नाठा है। त्योहार और व्योहार हिन्दू-मुसलमान सबके यहाँ होते हैं।

कुँअर– भई हमसे कुछ करते-धरते नहीं बनता।

रामेश्वरी– हमने कह दिया, हम जाने नहीं देगे। अगर तुम चले गये तो मुझे बड़ा रंज होगा। तुम्हीं लोगों से तो महफिल की शोभा होगी और अपना कौन बैठा हुआ है।

कुँअर– अब तो साहब को लिख भेजने का भी मौका नहीं है। वह दफ्तर चले गये होंगे। मेरा सब असबाब बँध चुका है। नौकरों को पेशगी रुपया दे चुका कि चलने की तैयारी करें। अब कैसे रुक सकता हूँ!

रामेश्वरी– कुछ भी हो, जाने न पाओगे।

सुशीला– दो-चार दिन बाद जाने में ऐसी कौन-सी बड़ी हानि हुई जाती है? वहाँ कौन लड्डू धरे हुए हैं?

कुँअर साहब बड़े धर्म-संकट में पड़े, अगर नहीं जाते तो छोटे साहब से झूठे पड़ते हैं। वह अपने दिल में कहेंगे कि अच्छे बेहूदे आदमी के साथ पाला पड़ा। अगर जाते हैं तो स्त्री से बिगाड़ होती है, साली मुँह फुलाती है। इसी चक्कर में पड़े हुए बाहर आये तो मियां वाजिद

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