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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


राजा साहब ने मेरी तरफ़ ख़ासदान बढ़ाकर कहा– तुम बड़े भाग्यवान् हो, अच्छा हुआ कि तुम इस जाल में नहीं फँसे। यह आँखों को लुभाने वाला सुनहरा जाल है यह मीठा किन्तु घातक विष है, यह वह मधुर संगीत है जो कानों को तो भला मालूम होता है, पर ह़दय को चूर-चूर कर देता है, यह वह मायामृग है, जिसके पीछे आदमी अपने प्राण ही नहीं, अपनी इज़्ज़त तक खो बैठता है।

उन्होंने गिलास में शराब उँडेली और एक चुस्की लेकर बोले– जानते हो मैंने इस सरफराज के लिए कैसी-कैसी परेशानियाँ उठाई? मैं उसके भौंहों के एक इशारे पर अपना यह सिर उसके पैरों पर रख सकता था, यह सारी रियासत उसके चरणों पर अर्पित कर सकता था। इन्हीं हाथों से मैंने उसका पलंग बिछाया है, उसे हुक्का भर-भरकर पिलाया है, उसके कमरे में झाडूँ लगायी है। वह पलँग से उतरती थी, तो मैं उसकी जूती सीधी करता था। इस खिदमतगुजारी में मुझे कितना आनन्द प्राप्त होता था, तुमसे बयान नहीं कर सकता। मैं उसके सामने जाकर उसके इशारों का गुलाम हो जाता था। प्रभुता और रियासत का ग़रूर मेरे दिल से लुप्त हो जाता था। उसकी सेवा-सुश्रूषा में मुझे तीनों लोक का राज मिल जाता था, पर इस जालिम ने हमेशा मेरी उपेक्षा की। शायद वह मुझे अपने योग्य ही नहीं समझती थी। मुझे यह अभिलाषा ही रह गयी है कि वह एक बार अपनी उन मस्ताना रसीली आँखों से, एक बार उन ईंगुर भरे हुए होठों से मेरी तरफ़ मुस्कराती। मैंने समझा था शायद वह उपासना की ही वस्तु हैं, शायद वह प्रकृति ही से निष्ठुर है, शायद वह प्रणय के भाव से ही वंचित है, उसे इन रहस्यों का ज्ञान नहीं। हाँ, मैंने समझा था, शायद अभी अल्हड़पन उसके प्रेमोदगारों पर मुहर लगाये हुए है। मैं इस आशा से अपने व्यथित हृदय को तसकीन देता था कि कभी तो मेरी अभिलाषाएँ पूरी होंगी, कभी तो उसकी सोयी हुई कल्पना जागेगी।

राजा साहब एकाएक चुप हो गये। फिर क़दे आदम शीशे की तरफ़ देखकर शान्त भाव से बोले– मैं इतना कुरूप तो नहीं हूँ कि कोई रमणी मुझसे इतनी घृणा करे।

राजा साहब बहुत ही रूपवान आदमी थे। ऊँचा क़द था, भरा हुआ बदन, सेव का-सा रंग, चेहरे से तेज झलकता था।

मैंने निर्भीक होकर कहा– इस विषय में तो प्रकृति ने हुजूर के साथ बड़ी उदारता के साथ काम लिया है।

राजा साहब के चेहरे पर एक क्षीण उदास मुस्कराहट दौड़ गयी, मगर फिर वहीं नैराश्य छा गया। बोले– सरदार साहब, मैंने इस बाज़ार की ख़ूब सैर की है। सम्मोहन और वशीकरण के जितने लटके हैं, उन सबों से परिचित हूँ, मगर जिन मंत्रों से मैंने अब तक हमेशा विजय पायी है, वे सब इस अवसर पर निरर्थक सिद्ध हुए। अन्त को मैंने यही निश्चय किया कि कुआँ ही अंधा है, इसमें प्यास को शान्त करने की सामर्थ्य नहीं। मगर शोक, कल मुझ पर इस निष्ठुरता और उपेक्षा का रहस्य खुला गया। आह! काश, यह रहस्य कुछ दिन और मुझसे छिपा रहता, कुछ दिन और मैं इसी भ्रम, इसी अज्ञान अवस्था में पड़ता रहता।

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