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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


संयोग से उन्हीं दिनों तीन दिन की छुट्टी हुई और मैं अम्माँ से मिलने ननिहाल गया। अम्माँ ने पूछा– गुड़ का मटका देखा है? चींटे तो नहीं लगे? सीलन तो नहीं पहुँची? मैंने मटकों को देखने की क़सम खाकर अपनी ईमानदारी का सबूत दिया। अम्माँ ने मुझे गर्व के नेत्रों से देखा और मेरे आज्ञा-पालन के पुरस्कार-स्वरुप मुझे एक हाँडी निकाल लेने की इजाजत दे दी, हाँ, ताकीद भी करा दी कि मटके का मुँह अच्छी तरह बन्द कर देना। अब तो वहाँ मुझे एक-एक– दिन एक-एक युग मालूम होने लगा। चौथे दिन घर आते ही मैंने पहला काम जो किया वह मटका खोलकर हाँडी– भर गुड़ निकालना था। एकबारगी पाँच पिंडियाँ उड़ा गया फिर वहीं गुड़बाज़ी शुरू हुई। अब क्या गम है, अम्माँ की इजाज़त मिल गई थी। सैयां भले कोतवाल, और आठ दिन में हाँडी गायब! आख़िर मैंने अपने दिल की कमजोरी से मजबूर होकर मटके की कोठरी के दरवाज़े पर ताला डाल दिया और कुंजी दीवार की एक मोटी संधि में डाल दी। अब देखें तुम कैसे गुड़ खाते हो। इस संधि में से कुंजी निकालने का मतलब यह था कि तीन हाथ दीवार खोद डाली जाय और यह हिम्मत मुझमें न थी। मगर तीन दिन में ही मेरे धीरज का प्याला छलक उठा और इन तीन दिनों में भी दिल की जो हालत थी वह बयान से बाहर है। शीरीं, यानी मीठे गुड़, की कोठरी की तरफ़ से बार-बार गुज़रता और अधीर नेत्रों से देखता और हाथ मलकर रह जाता। कई बार ताले को खटखटाया, खींचा, झटके दिये, मगर जालिम जरा भी न हुमसा। कई बार जाकर उस संधि की जांच-पड़ताल की, उसमें झांककर देखा, एक लकड़ी से उसकी गहराई का अन्दाज़ा लगाने की कोशिश की मगर उसकी तह न मिली। तबियत खोई हुई-सी रहती, न खाने-पीने में कुछ मज़ा था, न खेलने-कूदने में। वासना बार-बार युक्तियों के ज़ोर से दिल को कायल करने की कोशिश करती। आख़िर गुड़ और किस मर्ज की दवा है। मैं उसे फेंक तो देता नहीं, खाता ही तो हूँ, क्या आज खाया और क्या एक महीने बाद खाया, इसमें क्या फ़र्क़ है। अम्माँ ने मनाही की है बेशक लेकिन उन्हें मुझे एक उचित काम से अलग रखने का क्या हक है? अगर वह आज कहें खेलने मत जाओ या पेंड़ पर मत चढ़ो या तालाब में तैरने मत जाओ, या चिड़ियों के लिए कम्पा मत लगाओ, तितलियाँ मत पकड़ो, तो क्या में माने लेता हूँ? आख़िर चौथे दिन वासना की जीत हुई। मैंने तड़के उठकर एक कुदाल लेकर दीवार खोदना शुरू किया। संधि थी ही, खोदने में ज़्यादा देर न लगी, आध घण्टे के घनघोर परिश्रम के बाद दीवार से कोई गज़-भर लम्बा और तीन इंच मोटा चप्पड़ टूटकर नीचे गिर पड़ा और संधि की तह में वह सफलता की कुंजी पड़ी हुई थी, जैसे समुन्दर की तह में मोती की सीप पड़ी हो। मैंने झटपट उसे निकाला और फौरन दरवाज़ा खोला, मटके से गुड़ निकालकर हाँड़ी में भरा और दरवाज़ा बन्द कर दिया। मटके में इस लूट-पाट से स्पष्ट कमी पैदा हो गयी थी। हज़ार तरकीबें आजमाने पर भी इसका गढ़ा न भरा। मगर अबकी बार मैंने चटोरेपन का अम्माँ की वापसी तक खात्मा कर देने के लिए कुंजी को कुएं में डाल दिया। किस्सा लम्बा है, मैंने कैसे ताला तोड़ा, कैसे गुड़ निकाला और मटका खाली हो जाने पर कैसे फोड़ा और उसके टुकड़े रात को कुंए में फेंके और अम्माँ आयीं तो मैंने कैसे रो-रोकर उनसे मटके के चोरी जाने की कहानी कही, यह बयान करने लगा तो यह घटना जो मैं आज लिखने बैठा हूँ अधूरी रह जायगी।

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