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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मगर देहातों में लोग सरे-शाम सोने के आदी होते हैं। एक आदमी कुएं पर पानी भर रहा था। उससे पूछा तो उसने बहुत ही निराशाजनक उत्तर दिया– अब यहाँ कुछ न मिलेगा। बनिये नमक-तेल रखते हैं। हलवाई की दुकान एक भी नहीं। कोई शहर थोड़े ही है, इतनी रात तक दुकान खोले कौन बैठा रहे!

मैंने उससे बड़े विनती के स्वर में कहा– कहीं सोने को जगह मिल जायगी?

उसने पूछा– कौन हो तुम? तुम्हारी जान-पहचान का यहाँ कोई नहीं है?

‘जान-पहचान का कोई होता तो तुमसे क्यों पूछता?’

‘तो भाई, अनजान आदमी को यहाँ नहीं ठहरने देंगे। इसी तरह कल एक मुसाफ़िर आकर ठहरा था, रात को एक घर में सेंध पड़ गयी, सुबह को मुसाफ़िर का पता न था।’

‘तो क्या तुम समझते हो, मैं चोर हूँ?’

‘किसी के माथे पर तो लिखा नहीं होता, अन्दर का हाल कौन जाने!’

‘नहीं ठहराना चाहते न सही, मगर चोर तो न बनाओ। मैं जानता यह इतना मनहूस गाँव है तो इधर आता ही क्यों?’

मैंने ज़्यादा खुशामद न की, जी जल गया। सड़क पर आकर फिर आगे चल पड़ा। इस वक़्त मेरे होश ठिकाने न थे। कुछ ख़बर नहीं किस रास्ते से गाँव में आया था और किधर चला जा रहा था। अब मुझे अपने घर पहुँचने की उम्मीद न थी। रात यों ही भटकते हुए गुज़रेगी, फिर इसका क्या ग़म कि कहाँ जा रहा हूँ। मालूम नहीं कितनी देर तक मेरे दिमाग की यह हालत रही। अचानक एक खेत में आग जलती हुई दिखाई पड़ी कि जैसे आशा का दीपक हो। ज़रूर वहाँ कोई आदमी होगा। शायद रात काटने को जगह मिल जाए। कदम तेज किये और करीब पहुँचा कि यकायक एक बड़ा-सा कुत्ता भूँकता हुआ मेरी तरफ़ दौड़ा। इतनी डरावनी आवाज़ थी कि मैं कांप उठा। एक पल में वह मेरे सामने आ गया और मेरी तरफ़ लपक-लपककर भूँकने लगा। मेरे हाथों में किताबों की पोटली के सिवा और क्या था, न कोई लकड़ी थी न पत्थर, कैसे भगाऊँ, कहीं बदमाश मेरी टांग पकड़ ले तो क्या करूँ! अंग्रेज़ी नस्ल का शिकारी कुत्ता मालूम होता था। मैं जितना ही धत्-धत् करता था उतना ही वह गरजता था। मैं खामोश खड़ा हो गया और पोटली जमीन पर रखकर पाँव से जूते निकाल लिये, अपनी हिफ़ाजत के लिए कोई हथियार तो हाथ में हो! उसकी तरफ़ गौर से देख रहा था कि खतरनाक हद तक मेरे करीब आये तो उसके सिर पर इतने जोर से नालदार जूता मार दूं कि याद ही तो करे लेकिन शायद उसने मेरी नियत ताड़ ली और इस तरह मेरी तरफ़ झपटा कि मैं कांप गया और जूते हाथ से छूटकर ज़मीन पर गिर पड़े। और उसी वक़्त मैंने डरी हुई आवाज़ में पुकारा– अरे खेत में कोई है, देखो यह कुत्ता मुझे काट रहा है! ओ महतो, देखो तुम्हारा कुत्ता मुझे काट रहा है।

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