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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


लेकिन जब विवाह का मुर्हूत आया, इधर से एक दर्जन व्हिस्की की बोतलों की फ़रमाइश हुई और कहा गया कि जब तक बोतलें न आ जायँगी हम विवाह-संस्कार के लिए मंडप में न जायँगे। तब मुझसे न देखा गया। मैंने समझ लिया कि ये सब पशु हैं, इंसानियत से खाली। इनके साथ एक क्षण रहना भी अपनी आत्मा का ख़ून करना है। मैंने उसी वक़्त प्रतिज्ञा की कि अब कभी किसी बरात में न जाऊँगा और अपना बोरिया-बकचा लेकर उसी क्षण वहाँ से चल दिया।

इसलिए जब गत मंगलवार को मेरे परम मित्र सुरेश बाबू ने मुझ अपने लड़के के विवाह का निमन्त्रण दिया तो मैंने सुरेश बाबू को दोनों हाथों से पकड़कर कहा– जी नहीं, मुझे क्षमा कीजिए, मैं न जाऊँगा।

उन्होंने खिन्न होकर कहा– आख़िर क्यों?

‘मैंने प्रतिज्ञा कर ली है कि अब किसी बरात में न जाऊँगा।’

‘अपने बेटे की बरात में भी नहीं?’

‘बेटे की बरात में खुद अपना स्वामी रहूँगा।’

‘तो समझ लीजिए यह आप ही का पुत्र है और आप यहाँ अपने स्वामी हैं।’

मैं निरुत्तर हो गया। फिर भी मैंने अपना पक्ष न छोड़ा।

‘आप लोग वहाँ कन्यापक्षवालों से सिगरेट बर्फ, तेल, शराब आदि-आदि चीजों के लिए आग्रह तो न करेंगे?’

‘भूलकर भी नहीं, इस विषय में मेरे विचार वहीं हैं जो आपके।’

‘ऐसा तो न होगा कि मेरे जैसे विचार रखते हुए भी आप वहीं दुराग्रहियों की बातों में आ जायँ और वे अपने हथकन्डे शुरू कर दें?’

‘मैं आप ही को अपना प्रतिनिधि बनाता हूँ। आपके फैसले की वहाँ कहीं अपील न होगीं।’

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