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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

कोई दुख न हो तो बकरी खरीद लो

उन दिनों दूध की तकलीफ़ थी। कई डेरी फर्मों की आज़माइश की, अहीरों का इम्तहान लिया, कोई नतीजा नहीं। दो-चार दिन तो दूध अच्छा, मिलता फिर मिलावट शुरू हो जाती। कभी शिकायत होती दूध फट गया, कभी उसमें से नागवार बू आने लगी, कभी मक्खन के रेजे निकलते। आख़िर एक दिन एक दोस्त से कहा– भाई, आओ साझे में एक गाय ले लें, तुम्हें भी दूध का आराम होगा, मुझे भी। लागत आधी-आधी, खर्च आधा-आधा, दूध भी आधा-आधा। दोस्त साहब राजी हो गये। मेरे घर में जगह न थी और गोबर वग़ैरह से मुझे नफ़रत है। उनके मकान में काफ़ी जगह थी इसलिए प्रस्ताव हुआ कि गाय उन्हीं के घर रहे। इसके बदले में उन्हें गोबर पर एकछत्र अधिकार रहे। वह उसे पूरी आजादी से पाथें, उपले बनायें, घर लीपें, पड़ोसियों को दें या उसे किसी आयुर्वेदिक उपयोग में लायें, इक़रार करनेवाले को इसमें किसी प्रकार की आपत्ति या प्रतिवाद न होगा और इक़रार करनेवाला सही होश-हवास में इक़रार करता है कि वह गोबर पर कभी अपना अधिकार जमाने की कोशिश न करेगा और न किसी को इस्तेमाल करने के लिए आमादा करेगा।

दूध आने लगा, रोज़-रोज़ की झंझट से मुक्ति मिली। एक हफ़्ते तक किसी तरह की शिकायत न पैदा हुई। गरम-गरम दूध पीता था और खुश होकर गाता था–

रब का शुक्र अदा कर भाई जिसने हमारी गाय बनाई।

ताज़ा दूध पिलाया उसने लुत्फ़े-हयात चखाया उसने।

दूध में भीगी रोटी मेरी उसके करम ने बख्शी सेरी।

खुदा की रहमत की है मूरत कैसी भोली-भाली सूरत।

मगर धीरे-धीरे यहाँ पुरानी शिकायतें पैदा होने लगीं। यहाँ तक नौबत पहुँची कि दूध सिर्फ़ नाम का दूध रह गया। कितना ही उबालो, न कहीं मलाई का पता न मिठास। पहले तो शिकायत कर लिया करता था इससे दिल का बुखार निकल जाता था। शिकायत से सुधार न होता तो दूध बन्द कर देता था। अब तो शिकायत का भी मौक़ा न था, बन्द कर देने का जिक्र ही क्या। भिखारी का गुस्सा अपनी जान पर, पियो या नाले में डाल दो। आठ आने रोज़ का नुस्खा क़िस्मत में लिखा हुआ। बच्चा दूध को मुँह न लगाता, पीना तो दूर रहा। आधों आध शक्कर डालकर कुछ दिनों दूध पिलाया तो फोड़े निकलने शुरू हुए और मेरे घर में रोज़ बमचख मची रहती थी। बीवी नौकर से फ़रमाती-दूध ले जाकर उन्हीं के सर पटक आ। मैं नौकर को मना करता। वह कहतीं– अच्छे दोस्त हैं तुम्हारे, उसे शरम भी नहीं आती। क्या इतना अहमक़ है कि इतना भी नहीं समझता कि यह लोग दूध देखकर क्या कहेंगे! गाय को अपने घर मंगवा लो, बला से बदबू आयगी, मच्छर होंगे, दूध तो अच्छा मिलेगा। रुपये खर्चे हैं तो उसका मज़ा तो मिलेगा।

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