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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

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माया अपने तिमंजिले मकान की छत पर खड़ी सड़क की ओर उद्विग्न और अधीर आँखों से ताक रही थी और सोच रही थी, वह अब तक आये क्यों नहीं? कहाँ देर लगायी? इसी गाड़ी से आने को लिखा था। गाड़ी तो आ गयी होगी, स्टेशन से मुसाफ़िर चले आ रहे हैं। इस वक़्त तो कोई दूसरी गाड़ी नहीं आती। शायद असबाब वगैरह रखने में देर हुई, यार-दोस्त स्टेशन पर बधाई देने के लिए पहुँच गये हों, उनसे फुर्सत मिलेगी, तब घर की सुध आयेगी! उनकी जगह मैं होती तो सीधे घर आती। दोस्तों से कह देती, जनाब, इस वक़्त मुझे माफ़ कीजिए, फिर मिलिएगा। मगर दोस्तों में तो उनकी जान बसती है!

मिस्टर व्यास लखनऊ के नौजवान मगर अत्यंत प्रतिष्ठित बैरिस्टरों में हैं। तीन महीने से वह एक राजीतिक मुक़दमे की पैरवी करने के लिए सरकार की ओर से लाहौर गये हुए हैं। उन्होंने माया को लिखा था– जीत हो गयी। पहली तारीख को मैं शाम की मेल में ज़रूर पहुँचूँगा। आज वही शाम है। माया ने आज सारा दिन तैयारियों में बिताया। सारा मकान धुलवाया। कमरों की सजावट के सामान साफ़ करायें, मोटर धुलवायी। ये तीन महीने उसने तपस्या के काटे थे। मगर अब तक मिस्टर व्यास नहीं आये।

उसकी छोटी बच्ची तिलोत्तमा आकर उसके पैरों में चिमट गयी और बोली– अम्माँ, बाबूजी कब आयेंगे?

माया ने उसे गोद में उठा लिया और चूमकर बोली– आते ही होंगे बेटी, गाड़ी तो कब की आ गयी।

तिलोत्तमा– मेरे लिए अच्छी-अच्छी गुड़ियाँ लाते होंगे।

माया ने कुछ जवाब न दिया। इन्तज़ार अब गुस्से में बदलता जाता था। वह सोच रही थी, जिस तरह मुझे हज़रत परेशान कर रहे हैं, उसी तरह मैं भी उनको परेशान करूँगी। घण्टे-भर तक बोलूंगी ही नहीं। आकर स्टेशन पर बैठे हुए है? जलाने में उन्हें मज़ा आता है। यह उनकी पुरानी आदत है। दिल को क्या करूँ। नहीं, जी तो यही चाहता है कि जैसे वह मुझसे बेरुखी दिखलाते हैं, उसी तरह मैं भी उनकी बात न पूछूँ।

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