कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
‘बैंक में तो रुपये हैं? जायदाद तो है? दो-तीन हज़ार का प्रबन्ध करना ऐसा क्या कठिन है?’
चैतन्यदास ने पत्नी को ऐसी दृष्टि से देखा मानो उसे खा जायँगे और एक क्षण के बाद बोले– बिलकुल बच्चों की सी बातें करती हो। इटली में ऐसी कोई संजीवनी नहीं रक्खी हुई है जो तुरन्त चमत्कार दिखायेगी। जब वहाँ भी केवल प्रारब्ध ही की परीक्षा करनी है तो सावधानी से कर लेंगे। पूर्व पुरुषों की संचित जायदाद और रक्खे हुए रुपये मैं अनिश्चित हित की आशा पर बलिदान नहीं कर सकता।
तपेश्वरी ने डरते-डरते कहा– आख़िर, आधा हिस्सा तो प्रभुदास का भी है?
बाबू साहब तिरस्कार करते हुए बोले– आधा नहीं, उसे मैं अपना सर्वस्व दे देता, जब उससे कुछ आशा होती, वह खानदान की मर्यादा और ऐश्वर्य बढ़ाता और इस लगाये हुए धन के फलस्वरूप कुछ कर दिखाता। मैं केवल भावुकता के फेर में पड़कर धन का ह्रास नहीं कर सकता।
तपेश्वरी अवाक रह गयी। जीतकर भी उसकी हार हुई।
इस प्रस्ताव के छः महीने बाद शिवदास बी० ए० पास हो गया। बाबू चैतन्यदास ने अपनी ज़मींदारी के दो आने बन्धक रखकर क़ानून पढ़ने के निमित्त उसे इंगलैण्ड भेजा। उसे बम्बई तक खुद पहुँचाने गये। वहाँ से लौटे तो उनका अंतःकरण सदिच्छायों से परिपूर्ण था। उन्होंने एक ऐसे चलते हुए काम में रुपए लगाए थे जिससे अपरिमित लाभ होने की आशा थी। उनके लौटने के एक सप्ताह पीछे अभागा प्रभुदास अपनी उच्च अभिलाषाओं को लिये हुए परलोक सिधारा।
चैतन्यदास मणिकर्णिका घाट पर अपने सम्बन्धियों के साथ बैठे चिता– ज्वाला की ओर देख रहे थे। उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। पुत्र– प्रेम एक क्षण के लिए अर्थ-सिद्धांत पर ग़ालिब आ गया था। उस विरक्तावस्था में उनके मन में यह कल्पना उठ रही थी।– सम्भव है, इटली जाकर प्रभुदास स्वस्थ हो जाता। हाय! मैंने तीन हज़ार का मुँह देखा और पुत्र-रत्न को हाथ से खो दिया। यह कल्पना प्रतिक्षण सजग होती थी और उनको ग्लानि, शोक और पश्चात्ताप के बाणों से बेध रही थी। रह रहकर उनके हृदय में वेदना की शूल सी उठती थी। उनके अन्तर की ज्वाला उस चिता-ज्वाला से कम दग्धकारिणी न थी। अकस्मात उनके कानों में शहनाइयों की आवाज़ आयी। उन्होंने आँख ऊपर उठाई तो मनुष्यों का एक समूह एक अर्थी के साथ आता हुआ दिखाई दिया। वे सब के सब ढोल बजाते, गाते, पुष्प आदि की वर्षा करते चले आते थे। घाट पर पहुँचकर उन्होंने अर्थी उतारी और चिता बनाने लगे। उनमें से एक युवक आकर चैतन्यदास के पास खड़ा हो गया। बाबू साहब ने पूछा – किस मुहल्ले में रहते हो?
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