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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


जायदाद पर मेरा नाम था पर यह केवल एक भ्रम था, उस पर अधिकार पूरी तरह सईद का था। नौकर भी उसी को अपना मालिक समझते थे और अक्सर मेरे साथ ढिठाई से पेश आते। मैं सब्र के साथ ज़िन्दगी के दिन काट रही थी। जब दिल में उमंगे न रहीं तो पीड़ा क्यों होती?

सावन का महीना था, काली घटा छायी हुई थी, और रिसझिम बूँदें पड़ रही थीं। बग़ीचे पर हसरत का अँधेरा और सियाह दरख़्तों पर जुगनुओं की चमक ऐसी मालूम होती थी कि जैसे उनके मुँह से चिनगारियों जैसी आहें निकल रही हैं। मैं देर तक हसरत का यह तमाशा देखती रही। कीड़े एक साथ चमकते थे और एक साथ बुझ जाते थे, गोया रोशनी की बाढ़ें छूट रही हैं। मुझे भी झूला झूलने और गाने का शौक़ हुआ। मौसम की हालतें हसरत के मारे हुए दिलों पर भी अपना जादू कर जाती हैं। बग़ीचे में एक गोल बंगला था। मैं उसमें आयी और बरागदे की एक कड़ी में झूला डलवाकर झूलने लगी। मुझे आज मालूम हुआ कि निराशा में भी एक आध्यात्मिक आनन्द होता है जिसका हाल उनको नहीं मालूम जिसकी इच्छाएँ पूर्ण हैं। मैं चाव से मल्हार गाने लगी। सावन विरह और शोक का महीना है। गीत में एक वियोगी हृदय की कथा ऐसे दर्द भरे शब्दों में बयान की गयी थी कि बरबस आँखों से आँसू टपकने लगे। इतने में बाहर से एक लालटेन की रोशनी नज़र आयी। सईद का नौकर पिछले दरवाज़े से दाख़िल हुआ। उसके पीछे वही हसीना और सईद दोनों चले आ रहे थे। हसीना ने मेरे पास आकर कहा– आज यहाँ नाच रंग की महफ़िल सजेगी और शराब के दौर चलेंगे।

मैंने घृणा से कहा– मुबारक हो।

हसीना– बारहमासे और मल्हार की तानें उड़ेंगी साजिन्दे आ रहे हैं।

मैं– शौक से।

हसीना– तुम्हारा सीना हसद से चाक हो जायगा।

सईद ने मुझसे कहा– जुबैदा, तुम अपने कमरे में चली जाओ, यह इस वक़्त आपे में नहीं हैं।

हसीना ने मेरी तरफ़ लाल-लाल आखें निकालकर कहा– मैं तुम्हें अपने पैरों की धूल के बराबर भी नहीं समझती।

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