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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


सुलक्षणा ने नर्मी से कहा–‘इसकी आवश्यकता नहीं है। मैं वीरमदेव को देखूँगी, कैदखाने का दरवाजा खोल दो।’

सिपाही काँप गये और बोले, ‘यह हमारी शक्ति से बाहर है।’

सुलक्षणा ने कड़ककर कहा, ‘आज्ञा पालन करो। तुम रानी सुलक्षणा की आज्ञा सुन रहे हो। यह देखो शाही अँगूठी है।’

रानी सुलक्षणा का नाम राजधानी के बच्चे-बच्चे को जिह्वा पर था। कोई उसके गौर वर्ण का अनुमोदक था, कोई रसीले नयनों का। कोई गुलाब से गालो का, कोई पंखुड़ियों से होठों का। जब से उसने अलाउद्दीन पर विजय पाई थी। तब से उसकी सुन्दरता की कहानियाँ घर-घर में प्रसिद्ध हो रही थीं। उसे किसी ने नहीं देखा, परन्तु फिर भी कोई न था। जो इस बात की डींग मारकर मित्रों में प्रसन्न न होता हो कि उसने सुलक्षणा को देखा है।

सिपाहियों ने सुलक्षणा का नाम सुना और शाही अँगूठी देखी, तो उसने प्राण सूख गये। काँपते हुए बोले, ‘जो आज्ञा हो, हम हाज़िर हैं।’ यह कहकर उन्होंने कैदखाने का दरवाजा खोल दिया और वे दीपक लेकर उस कोठरी की ओर रवाना हुए, जिसमें अभागा वीरमदेव अपने जीवन की अंतिम रात्रि के श्वास पूरे कर रहा था। सुलक्षणा के पैर लड़खड़ाने लगे। अब वह सामने होगा, जिसकी कभी मन में आराधना किया करती थी। आज उसे वध की आशा सुनाने चली हूँ।

सिपाहियों ने धुँधला-सा दीपक दीवट पर रख दिया और आप दरवाजा बंद करके बाहर चले गये। सुलक्षणा ने देखा, वीरमदेव फर्श पर बैठा हुआ है और मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। सुलक्षणा के हृदय पर चोट पहुँची। यह राजपूत कुल-भूषण है और धर्म पर स्थिर रहकर जाति पर न्योछावर हो रहा है। मैं भ्रष्टा होकर अपनी जाति के एक बहुमूल्य व्यक्ति के प्राण ले रही हूँ। यह मर जायगा, तो स्वर्ग के द्वार इसके स्वागत के लिए खुल जाएँगे। मैं जीवित रहूंगी, परन्तु नरक के पथ में नीचे उतरती जाऊँगी। इसके नाम पर लोग श्रद्धा के पुष्प चढ़ाएँगे, मेरे नाम पर सदा धिक्कार पड़ेगी। यह मैंने क्या कर दिया? जिससे प्रेम करती थी, जिसके नाम की माला जपती थी, जिसकी मूर्ति मेरा उपास्य देव थी, जिसके स्वप्न देखती थी, उसे आप कहकर मरवाने चली हूँ। जिस सिर को अपना सिर मौर समझती थी, उसे नेत्र कटा हुआ कैसे देखेंगे? सुलक्षणा की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। प्रेम की दबी हुई अग्नि जल उठी। सोया हुआ स्नेह जागृत हो पड़ा। हृदय में पहले का प्रेम लहराने लगा, नेत्रों में पहला प्रेम झलकने लगा। सुलक्षण की नींद खुल गयी।

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