नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 29 पाठक हैं |
‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
[होरी ठिठकता है, धनिया को थपथपाता है। फिर दोनों किवाड़ों के दराज से झांकते हैं और फिर एक दूसरे को देखते हैं। फिर सहसा होरी किवाड़ खोल देता है। तेल की कुप्पी का प्रकाश मंच पर पड़ता है और उसी के साथ कांपती, रोती झुनिया आगे आती है]
झुनिया— कौन? दादा...(पैरों पर गिर पड़ती है) दादा, अब तुम्हारे सिवाय मुझे दूसरा ठौर नहीं, चाहे मारो, चाहे काटो लेकिन अपने द्वार से दुरदुराओ मत।
होरी— (प्यार से पीठ पर हाथ फेरता हुआ) डर मत बेटी, डर मत। तेरा घर है, तेरा द्वार है, तेरे हम हैं। आराम से रह। हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आँखों न देख सकेगा। भोज-भात जो लगेगा, वह हम सब दे लेंगे, तू खातिर जमा रख।
झुनिया— (और भी पैरों से चिपटती है) दादा, अब तुम्हीं मेरे बाप हो और अम्मा तुम्हीं मेरी माँ हो। मैं अनाथ हूँ। मुझे सरन दो, नहीं मेरे काका और भाई कच्चा ही खा जायँगे।
धनिया— तू चल घर बैठ, मैं देख लूँगी काका और भैया को। संसार में उन्हीं का राज नहीं है। बहुत करेंगे, अपने गहने ले लेंगे। फेंक देना उतार कर।
होरी— क्यों बेटी तुझे कुछ मालूम है, गोबर किधर गया है?
झुनिया— (सिसकती है) मुझसे तो कुछ नहीं कहा। मेरे कारण तुम्हारे ऊपर...(कंठावरोध)
होरी— जब तूने आज उसे देखा तो कुछ दुखी था?
झुनिया— बातें तो हँस-हँसकर रह रहे थे। मन का हाल भगवान जाने।
होरी— तेरा मन क्या कहता है, है गाँव में ही कि कहीं बाहर चला गया?
झुनिया— मुझे तो शंका होती है, कहीं बाहर चले गये हैं।
होरी— यही मेरा मन कहता है। कैसी नादानी की। हम उसके दुश्मन थोड़े ही थे। जब भली या बुरी एक बात हो गई तो उसे निभानी ही पड़ती है। इस तरह भाग कर तो इसने हमारी जान आफत में डाल दी।
धनिया— (झुनिया को अन्दर ले जाती है) कायर कहीं का। जिसकी बाँह पकड़ी उसका निबाह करना चाहिए कि मुँह में कालिख लगा कर भाग जाना चाहिये। अब जो आये तो घर में न पैठने दूँ !
[दोनों अन्दर जाती हैं। होरी वहीं पुआल पर चिन्ता की मुद्रा में बैठ जाता है। यहीं परदा गिरता है।]
|