नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
होरी— पंचों, मुझे अपने जवान बेटे का मुँह देखना नसीब न हो, अगर मेरे पास खलिहान के अनाज के सिवा और कोई चीज हो। मैं बिरादरी से दगा न करूँगा। पंचों को मेरे बाल-बच्चों पर दया आये तो परवरिस करे नहीं मैं तो अनाज लाता हूँ। (घर के पीछे जाता है)
[होरी जाता है। महतो भी धीरे-धीरे जाते हैं। फिर होरी एक किसान के साथ अनाज ढो-ढो कर जाता है। दोनों एक ओर से आते हैं दूसरी ओर से जाते हैं। कभी-कभी होरी बोलता है]
होरी— यह जो अब के इतना अनाज हुआ सब धनिया के पुरुषार्थ से हुआ। झुनिया भीतर का सारा काम कर लेती थी और धनिया अपनी लड़कियों के साथ खेती में जुट गयी थी।
किसान— यह भी कहने की बात है महतो, सारा गाँव जानता है।
होरी— सोचा था गेहूँ और तेलहन से लगान की एक किस्त अदा हो जायगी। थोड़ा-थोड़ा सूद भी दे देंगे। जो खाने के काम में आयेगा। वह सारी आशा मिट्टी में मिल गयी।
[जाता है, खाली करके लौटता है। दूसरी बार आता है तो धनिया झगड़ती आती है]
धनिया— अच्छा अब रहने दो, ढो चुके बिरादरी की लाज। बच्चों के लिए भी कुछ छोड़ोगे कि सब बिरादरी के भाड़ में झोंक दोगे?
होरी— (हाथ छुड़ा कर) यह न होगा धनियाँ, पंचों की आँख बचा कर एक दाना भी रख लेना मेरे लिए पाप है। फिर पंचों के मन में दया उपजेगी तो...
धनिया— (तिलमिलाकर) दया उपजेगी ! यह पंच नहीं राछस हैं, पक्के राछस ! ये सब हमारी जगह-जमीन छीन कर माल मारना चाहते हैं। तुम इन पिचाशों से दया की आशा रखते हो !
होरी— (टोकरी सिर पर रखता हुआ) पर पंचों से पूछे बिना एक दाना भी न लूँगा।
धनिया— (टोकरी पकड़कर) तुम न लेना पर इसे तो मैं न ले जाने दूँगी। चाहे तुम मेरी जान ही ले लो। तुमने अकेले ही सब कुछ नहीं कर लिया है। मैं अपनी बच्चियों के साथ सती हुई हूँ।
होरी— धनिया तू हट जा...
धनिया— मैं नहीं हटूँगी। सीधे टोकरी रख दो नहीं तो आज से सदा के लिए नाता टूट जायगा। कहे देती हूँ।
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