नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
रूपा— क्यों पीटेगा? मैं मार खाने का काम नहीं करूँगी।
सोना— वह कुछ न सुनेगा। तूने जरा भी कुछ कहा और वह मार चलेगा। मारते-मारते तेरी खाल उधड़ लेगा।
[रूपा बिगड़कर मारने को दौड़ती है। सोना चिढ़ाती है।] वह तेरी नाक भी काट लेगा। [रूपा सोना को पकड़कर जोर से काट लेती है। सोना चीखती है और रूपा को ढकेलती है। वह गिरती है और चीख कर उठती है। उस चीख को सुन कर गोबर क्रोध में भरा हुआ अन्दर से आता है और दोनों को पीटता है]
गोबर— क्या शोर मचा रखा है। नाक में दम कर लिया है। इतनी बड़ी हो गई, रत्ती भर तमीज नहीं।
[दोनों रोती हुई अन्दर भागती हैं। होरी घबराया-सा बाहर आता है]
होरी— दोनों को मार कर भगा दिया?
गोबर— (तेजी से) तुम्हीं ने इन सब को बिगाड़ रखा है।
होरी— पर इस तरह मारने से और भी निर्लज्ज हो जायँगी।
गोबर— दो जून खाना बन्द कर दो। आप ठीक हो जायँ।
होरी— मैं उनका बाप हूँ। कसाई नहीं हूँ। अब पानी कौन चलायगा?
गोबर— पानी भी कोई चला लेगा। (तेजी से अन्दर आता है और झुनिया को लेकर आता है। पीछे-पीछे धनिया और दोनों बेटियाँ हैं)
गोबर— पानी यह चलायगी।
[दोनों बाहर जाते हैं।]
धनिया— देख...इसने आज जवान लड़की पर हाथ उठाया। रूपा को मार लेता तो कुछ न था...
[होरी कुछ नहीं कहता। वह तो जैसे खो गया। एक क्षण बाद वह बिना कुछ कहे चला जाता है। धनिया और रूपा, सोना भी उसी तरह पीछे-पीछे जाती हैं। परदा गिरता है।]
[वही स्थान। समय सन्ध्या के बाद। गोबर और नोखेराम तेजी से बातें करते हैं।]
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