नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
गोबर— जाते न तो क्या करते? लेकिन मैं कहें देता हूँ, दादा, मैं कहाँ-कहाँ तुम्हारी रक्षा करता फिरूँगा। सत्तर रुपये दिये जाता हूँ। दातादीन ले, तो देकर भरपाई लिखा लेना। इसके ऊपर तुमने एक पैसा भी दिया, तो फिर मुझसे एक पैसा भी न पाओगे। मैं परदेस में इसलिए नहीं पड़ा हूँ कि तुम अपने को लुटवाते रहो और मैं कमा-कमाकर मरता रहूँ। मैं कल चला जाऊँगा।
[धनिया आती है]
धनिया— अभी क्यों जाते हो बेटा, दो-चार दिन रह कर ऊख की बोनी करा लो और कुछ लेन-देन का हिसाब भी ठीक कर लो तो जाना।
गोबर— मेरा दो-तीन रुपये रोज का घाटा हो रहा है, यह भी समझती हो। यहाँ मैं बहुत-से-बहुत चार आने की मजदूरी ही तो करता हूँ ! और अब की मैं झुनिया को भी लेता जाऊँगा। वहाँ मुझे खाने-पीने की बड़ी तकलीफ होती है।
धनिया— (डरते-डरते) जैसी तुम्हारी इच्छा। लेकिन वहाँ कैसे अकेले सँभालेगी, कैसे बच्चे की देख-भाल करेगी।
गोबर— अब बच्चे को देखूँ कि अपना सुभीता देखूँ। मुझसे चूल्हा नहीं फूँका जाता।
धनिया— ले जाने को मैं नहीं रोकती, लेकिन परदेस में बाल-बच्चों के साथ रहना, न कोई आगे न पीछे, सोचो कितना झंझट है।
गोबर— परदेस में भी संगी-साथी निकल आते हैं। और यह तो स्वारथ का संसार है। जिसके साथ चार पैसे गम खाओ, वही अपना। खाली हाथ तो माँ-बाप भी नहीं पूछते।
धनिया— माँ-बाप को भी तुमने उन्हीं पैसे के यारों में समझ लिया?
गोबर— आँखों देख रहा हूँ।
धनिया— नहीं देख रहे हो। माँ-बाप का मन इतना निठुर नहीं होता। हाँ, लड़के अलबत्ता जहाँ चार पैसे कमाने लगे कि माँ-बाप से आँखें फेर लीं। माँ-बाप करज-कवाम लेते हैं किसके लिए? लड़के लड़कियों के लिए कि अपने भोग-विलास के लिए?
गोबर— क्या जाने तुमने किसके लिए करज लिया। मैंने तो एक पैसा भी नहीं जाना।
धनिया— बिना पाले ही इतने बड़े हो गये !
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