नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
होरी— लेकिन...लेकिन...(सिर झुका लेता है)
दातादीन— कहो न क्या कहते हो
होरी— सोच कर कहूँगा।
दातादीन— इसमें सोचने की क्या बात है?
होरी— धनिया से भी तो पूछ लूँ।
दातादीन— तुम राजी हो कि नहीं?
होरी— जरा सोच लेने दो, महाराज। आज तक कुल में कभी ऐसा नहीं हुआ। उसकी मरजाद भी तो रखना है।
दातादीन— (उठते हैं) पाँच-छः दिन के अन्दर मुझे जवाब दे देना। ऐसा न हो, तुम सोचते ही रहो और बेदखली हो जाय।( जाते हैं तभी अन्दर से धनिया आती है)
धनिया— पण्डित क्यों आये थे?
होरी— कुछ नहीं, रुपिया की सगाई की बात थी।
धनिया— किससे?
होरी— रामसेवक को जानती है? उन्हीं से।
धनिया— मैंने उन्हें कब देखा, हाँ, नाम बहुत दिन से सुनती हूँ। वह तो बूढ़ा होगा।
होरी— बूढ़े नहीं हैं, हाँ अधेड़ हैं।
धनिया— तुमने पण्डित को फटकारा नहीं। मुझसे कहते तो ऐसा जवाब देती कि याद करते।
होरी— फटकारा नहीं लेकिन इन्कार कर दिया। कहते थे, ब्याह भी बिना खरच-वरच के हो जायगा और खेत भी बच जायेंगे।
धनिया— साफ-साफ क्यों नहीं बोलते कि लड़की बेचने को कहते थे। कैसे इस बूढ़े को हियाव पड़ा। अब पास न फटकने देना।
(जाती है। होरी वहीं बैठा सोचता है फिर फुसफुसा कर उठता है)
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