नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
[सहसा शोभा का प्रवेश]
शोभा— दादा। दादा ! रामसेवक महतो आये हैं।
होरी— कौन ! रामसेवक महतो।
धनिया— हमारे गाँव में...
शोभा— हमारे गाँव में, हमारे घर में भाभी। कलाँ राम घोड़े पर सवार, साथ एक नाई और एक खिदमतगार जैसे कोई बड़ा जमींदार हो।
होरी— (उठता है) अरे धनिया खाट पर बिछावन तो बिछा। मैं सहुआइन की दुकान से गेहूँ का आटा और घी लाता हूँ। (बाहर जाने को मुड़ता है)
शोभा— भाभी ! कहते हैं उम्र चालीस से ऊपर है। होगी, पर चेहरे पर तेज है। देह गठी हुई है। दादा उनके सामने बिलकुल बूढ़े लगते हैं।
होरी— (लौट कर) शोभा तू जरा मेरे साथ चल। या नहीं, तू यहीं रह। वह शायद दोपहरी भर यहीं रहेंगे। धनिया तू देख क्या रही है। पूरियों का बन्दोबस्त कर।
[एक हलचल मच जाती है। होरी इधर-उधर उछल कूद करके बाहर जाता है। शोभा भी साथ है। धनिया एक-दो क्षण देखती है फिर जाती है। परदा गिर जाता है।]
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