नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
धनिया— तो क्या हुआ? या तो किसी को नेवता न दो और दो तो भर पेट खिलाओ। तुम्हारे पास फूलपत्र लेने थोड़े आये हैं कि चंगोरी लेकर चलते। देते ही हो तो तीन खाँचे दो।
होरी— तीन खाँचे तो मेरे दिये न दिये जायँगे।
धनिया— तब क्या एक खाँचा देकर टालोगे ! गोबर से कह दो कि अपना खाँचा भर कर उसके साथ चला जाय।
होरी— यह तो अच्छी दिल्लगी है कि अपना माल भी दो और उसे घर तक पहुँचा भी दो। लाद दे, लदा दे, लदानेवाला साथ कर दे। और तीन खांचे उन्हें दूँ तो अपने बैल क्या खायँगे?
धनिया— यह तो नेवता देने के पहले ही सोच लेना था।
होरी— मुरौवत, मुरौवत की तरह की जाती है, अपना घर उठा कर नहीं दे दिया जाता।
धनिया— अभी जमींदार का प्यादा आ जाय तो अपने सिर पर भूसा लाद कर पहुँचाओगे, तुम, तुम्हारा लड़का-लड़की सब।
होरी— जमींदार की बात और है।
धनिया— हां, वह डंडे के जोर से काम लेता है न !
होरी— उसके खेत नहीं जोतते?
धनिया— खेत जोतते हैं तो लगान नहीं देते?
होरी— अच्छा भाई जान न खा। हम दोनों चले जायँगे। कहाँ-से-कहाँ मैंने इन्हें भूसा लेने को कह दिया। या तो चलेगी नहीं और चलेगी तो दौड़ने लगेगी।
(दोनों अन्दर जाते हैं, तभी प्रकाश गदराने लगता है, मार्ग पर कुछ लोग आते-जाते हैं। गोबर खाँचा उठाकर जाते हैं। कुछ और अन्धकार बढ़ता है। साँझ होने वाली है। होरी उतावला-सा घर के बाहर चिलम पीता हुआ उचक कर रास्ते की तरफ देखता है।)
होरी— गोबर अभी तक न आया। वहाँ जाकर सो रहा क्या? भोला की वह मदमाती छोकरी नहीं है झुनिया? उसके साथ हँसी-दिल्लगी कर रहा होगा। (उचक कर) नहीं गाय दी तो लौट क्यों नहीं आया? क्या वहाँ ढई देगा? पर वह दूसरी गाय के चक्कर में फँसा होगा न !
[तभी रूपा सोना का भागते हुए आना]
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