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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


रानी लक्ष्मीदेवी के आचरण पर देवीबहादुर ने जो आक्षेप किया था, वह एक प्रकट रहस्य था। जनाने दरबार की विशेषताओं से उनका भी दरबार रहित न था। रनिवास क्या था, परिस्तान था। सब बूढ़ी लौंडियाँ निकाल दी गईं और उनकी जगह सुंदर स्त्रियाँ रखी गई थीं, उनमें से अनेक महारानी की मुँहलगी थीं और राजकाज में वह अक्सर उन्हीं की सलाह पर चलती थीं। इसलिए दरबार में इन लौडियों का बड़ा प्रभाव था, और राज्य के छोटे-बड़े सरदार न्याय-अन्याय की ओर से आँखें मूँदकर इन परियों में से किसी एक को शीशे में उतारना कर्तव्य समझते थे। इससे उनके बड़े-बड़े काम निकलते थे।

गगनसिंह नामक एक सरदार पर महारानी की विशेष कृपादृष्टि थी। यह बात सबको विदित थी, पर किसी में इतनी हिम्मत न थी कि एक शब्द मुँह से निकाल सके। रानी साहिबा अधिकतर मामलों में गगनसिंह से ही सलाह लेती थीं। उनका उद्देश्य यह था कि उसे मंत्रिपद पर प्रतिष्ठित करें। मोतबरसिंह की ओर से उनका ख़याल पहले ही खराब हो गया था, उस पर से गगनसिंह ने भी मोतबरसिंह के विरुद्ध उनके कान खूब भरे। यहाँ तक कि वह उनकी जान की भूखी हो गई। जंगबहादुर को गगनसिंह ने मिला लिया और अन्त में उन्हीं के हाथों रनिवास में मोतबरसिंह क़तल किए गए। जंगबहादुर के नाम से इस काले-धब्बे को छुड़ाना असंभव है। इस लज्जाजनक और कायरता-भरे कर्म में स्वार्थ के सिवा और कोई उद्देश्य नहीं था। क्रोध, प्रतिहिंसा या राज्य का हित–यही कारण है जिनसे ऐसी हत्याओं का औचित्य दिखाया जा सकता हैं, पर यहाँ इनमें से एक भी विद्यमान न था। इसको अंग्रेजी मुहावरे में ठंढे खून का क़तल कहना चाहिए। पद और अधिकार के लोभ में उन्हें अपने सगे मामा की हत्या में भी आगा-पीछा न हुआ।

मोतबरसिंह की हत्या से देश में हलचल मच गई, पर हत्या करने वाले का पता न चल सका। इधर महारानी का उद्देश्य भी सिद्ध न हुआ। मंत्रिपद के दावेदार अकेले गगनसिंह ही नहीं, और भी थे। जंगबहादुर इस समय एक सम्मानित सैनिक पद पर आसीन थे। तीन रेजिमेंट खास उन्हीं की भरती की हुई थीं, जो उनके सिवा और किसी का हुक्म मानना जानती ही न थीं। उनके कई भाइयों को भी सेना में ऊँचे पद मिल गए थे। अतः दरबार में उनका खासा प्रभाव स्थापित हो गया था। इस पर मोतबरसिंह के वध का पुरस्कार उनकी दृष्टि से मंत्रित्व के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता था। फल यह हुआ कि गगनसिंह को सेना के एक पद पर ही संतोष करना पड़ा और मंत्रिपद पाँडे-वंश के सरदार फतहजंग को दिया गया; पर यह स्थिति अधिक दिन तक न रह सकी। गगनसिंह महाराज की आँखों में काँटे की तरह खटकता था। वह किसी तरह उसे जहन्नुम भेजना चाहते थे; पर रानी के डर से लाचार थे। आखिर यह जलन न सही गई और उन्हीं के इशारे से एक साज़िश हुई, जिसमें गगनसिंह को ख़त्म कर देने का निश्चय हुआ। और एक दिन वह अपने मकान पर ही गोली का निशाना बना दिया गया।

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