लोगों की राय

कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

158 पाठक हैं

स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


ऐसी अवस्था में कोई आश्चर्य नहीं कि जब राणा ने अपने विरुद्ध मुगल सेना की जगह अपनी ही जाति के सूरमाओं और घुड़सवारों को आते देखा हो; अपने ही भाइयों, अपने ही सगे बंधुओं को तलवार खींचकर सामने खड़ा पाया हो; तो उसकी तलवार एक क्षण के लिए रुक गयी हो, तनिक देर के लिए वह खुद ठिठक गया हो और महाराज युद्धिष्ठिर की तरह पुकार उठा हो–‘क्या मैं अपने भाई-बन्दों से लड़ने के लिए आया हूँ?’ इसमें संदेह नहीं कि इन भाई-बन्दों से वह कितनी ही बार लड़ चुका था। राजस्थान का इतिहास ऐसे गृहयुद्धों से भरा पड़ा है, पर ये लड़ाइयाँ उन्हें एक-दूसरे से विलग नहीं करती थीं। दिन भर एक-दूसरे के खून में भाले भिगोने के बाद शाम को वह फिर मिल बैठते थे और परस्पर प्रेमालिंगन करते थे; पर आज राणा को ऐसा मालूम हुआ कि ये भाई-बंद मुझसे सदा के लिए बिछुड़ गए हैं, क्योंकि वह सच्चे राजपूत नहीं रह गए, उनकी बेटियाँ और बहिनें अकबर के अंतःपुर में दाखिल हो गई हैं। हा शोक! इन राजपूतों का राजपूती खून ऐसा ठंडा हो गया है। क्या राजपूती आन और जाति-अभिमान इनमें नाम को भी बाकी नहीं? हा! अपनी मान-प्रतिष्ठा की रक्षा का विचार क्या उनके मन से बिलकुल ही उठ गया? शोक कि उन्हीं राजपूत ललनाओं की बहिनें, जो चित्तौड़ के घेरे के समय अपने सतीत्व की रक्षा के लिए ‘जौहर’ करके जल मरी थीं, आज अकबर के पहलू में बैठी हैं और प्रसन्न हैं। उनके म्यान से तेगा क्यों नहीं निकल पड़ता, उनके कलेजे क्यों नहीं फट जाते! उनकी आँखों से खून क्यों नहीं टपक पड़ता! हा हंत! इक्ष्वाकु के वंश और पृथ्वीराज के कुल की यह दुर्दशा हो रही है!

प्रताप ने उन राजाओं से, जिन्होंने उसके विचार से राजपूतों को इतना ज़लील किया था, सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। उसके साथ शादी-ब्याह की तो बात ही क्या, खाना-पीना तक उचित न समझा। जब तक मुगल-राज्य बना रहा, उदयपुर के घराने ने केवल यही नहीं किया कि शाही खानदान से ही इस प्रकार का नाता न जोड़ा, बल्कि अम्बर और मारवाड़ को भी बिरादरी से ख़ारिज करवा दिया। उदयपुर यद्यपि अपनी नीति-रीति को निभाते चलने के कारण, विपदगर्त में गिरा और दूसरे राजघराने अपना बाना त्यागकर फूलते-फलते रहे, पर सारे राजस्थान में ऐसा कोई कुल न था, जिस पर उदयपुर का नैतिक रोब न छाया हो और जो उसके कुलगौरव को स्वीकार न करता हो। यहाँ तक कि अब महाराज जयसिंह और महाराज बख्तसिंह जैसे शक्तिशाली नरेशों ने उदयपुर से पवित्र बनाए जाने की प्रार्थना की और वह स्वीकृत हुई, तो यह शर्त लगा दी गई कि उदयपुर राजकुल की लड़की चाहे जिस कुल में ब्याही जाय, सदा उसी की संतान गद्दी पर बैठेगी।

काश, राणा अपनी घृणा को अपने दिल ही तक रखता, जबान तक न आने देता, तो बहुत-सी विपत्तियों से बच जाता। पर उसका वीर-हृदय दबना जानता ही न था। मानसिंह सोलापुर की मुहिम की ओर चला आ रहा था कि राणा से मिलने के लिए कुंभलमेर चला आया। राणा स्वयं उसकी अगवानी को गया और बड़े ठाट से उसकी दावत की; पर जब खाने का समय आया, तो कहला भेजा कि मेरे सिर में दर्द है। मानसिंह ताड़ गया कि इनको मेरे साथ बैठकर खाने में आपत्ति है, झल्लाकर उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘अगर मैंने तुम्हारा गर्व चूर्ण न कर दिया, तो मानसिंह नाम नहीं।’ तब तक राणा भी वहाँ पहुँच गया था और बोला–‘जब तुम्हारा जी ‘चाहे, चले आना। मुझे हरदम तैयार पाओगे।’ मानसिंह ने आकर अकबर को उभारा। बारूद पर पलीता पहुँच गया। फौरन राणा पर हमला करने के लिए फौज तैयार करने का हुक्म हुआ। शाहजादा सलीम प्रधान सेनापति बनाए गए। मानसिंह और महावत खाँ उनके सलाहकार नियुक्त हुए

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book