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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


सारी दुनिया के क़ानूनों का यह झुकाव रहा है कि आरम्भ में छोटे-छोटे अपराधों के लिए भी अति कठोर दण्ड की व्यवस्था की जाती है; पर जब सभ्यता में उन्नति और जाति की स्थिति में प्रगति होने लगती है, तो सजा में भी नरमी होती जाती है। भारतवर्ष में भी पुरातन-काल से कुछ जंगली सजाओं का रिवाज चला आता था, जैसे हाथ-पाँव काट देना, अन्धा कर देना आदि। अकबर के जागृत विवेक ने इनकी अमानुषिकता को समझ लिया और राज्यारोहण के छठे साल में ही इनको बिलकुल बंद कर दिया। पुराने जमाने में यह रीति थी कि युद्ध में जो कैद होते थे, वह जीवन भर के लिए स्वतंत्रता से वंचित होकर विजेता के दास बन जाते थे। रणनीति और राजनीति की दृष्टि से इसका कैसा ही असर क्यों न पड़ता हो, पर मानवता के विचार से यह प्रथा जितनी क्रूर और अत्याचारपूर्ण है, उसे बताने की आवश्यकता नहीं। इसलिए अकबर के लिए यह गर्व करने योग्य बात है कि उसने सन् ७ जुल्स (राज्यारोहण संवत्) में ही यह नियम बना दिया कि जो आदमी लड़ाई में कैद हो, वह गुलाम न बनाया जाय। जो पहले से यह अवस्था प्राप्त कर चुके थे, उनका भी गुलामी का दाग़ इस हद तक धो दिया कि उनके कुछ विशेष अधिकार निश्चित कर दिये और उनका नाम भी दास या गुलाम से बदलकर ‘चेला’ कर दिया। इसी के साथ गुलामों की आम खरीद-बिक्री भी एकदम बंद कर दी। इसके अगले साल यात्रियों से एक ज़बरदस्ती का कर लिया जाता था, उसको उठा दिया। यह मानो प्रथम बार इस बात की घोषणा थी कि हर आदमी अपने धर्म-विश्वास की दृष्टि से स्वाधीन है और उसके स्वधर्माचरण में किसी प्रकार की रोक-टोक न होनी चाहिए।

सन् ७ जुल्स में जो विचार कुछ दबी ज़बान में प्रकट किया गया था, अगले साल खूब जोर-शोर से उसकी घोषणा की गई और अकबर ने ऐसा काम किया, जिसने वस्तुतः शासक और शासित का पद राज्य के सामने एक कर दिया अर्थात् जिज़िया माफ़ कर दिया। जिज़िया वस्तुतः कोई वैसा कुत्सित कर नहीं था, जैसा की यूरोपियन इतिहासकारों ने समझा है; किंतु वह विजित जाति से इसलिए लिया जाता था कि वह सैनिक-सेना मुस्तसना होती थी। उद्देश्य यह था कि देश-रक्षा के लिए विजेता जाति जिस प्रकार अपनी जान लड़ाती थी, विजित जाति उसी तरह अपने माल से उसमें मदद करे। भारत के इतिहास का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाय, तो मालूम होगा कि आरंभ में कम्पनी सरकार देशी राज्यों में जो सहायक सेना या काँटिंजेंट के नाम से कुछ पलटनें रखकर उनका खर्च वसूल किया करती थी, वह भी एक तरह का जिज़िया ही था। और आज भी जो सैनिक या साम्राज्य-संबंधी (इम्पीरियल) व्यय कहलाते हैं और जिनमें देशवासियों का कोई अधिकार या आवाज नहीं, उनका नाम कुछ ही क्यों न रखा जाय, जिज़िया की परिभाषा उन पर भी घटित हो सकती है।

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