कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह) कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है
ऐसे समय पुनीत भारत-भूमि में पुनः एक महापुरुष का आविर्भाव हुआ, जिसके हृदय में अध्यात्म-भाव का सागर लहरा रहा था; जिसके विचार ऊँचे और दृष्टि दूरगामिनी थी; जिसका हृदय मानव-प्रेम से ओतप्रोत था। उसकी सच्चाई भरी ललकार ने क्षण भर में जड़वादी संसार में हलचल मचा दी। उसने नास्तिक्य के गढ़ में घुसकर साबित कर दिया कि तुम जिसे प्रकाश समझ रहे हो, वह वास्तव में अंधकार है, और यह सभ्यता जिस पर तुमको इतना गर्व है, सच्ची सभ्यता नहीं। इस सच्चे विश्वास के बल से भरे हुए भाषण ने भारत पर भी जादू का असर किया और जड़वाद के प्रखर प्रवाह ने अपने सामने ऐसी ऊँची दीवार खड़ी पायी, जिसकी जड़ को हिलाना या जिसके ऊपर से निकल जाना उसके लिए असाध्य कार्य था।
आज अपनी समाज-व्यवस्था, अपने वेदशास्त्र, अपने रीति-व्यवहार और धर्म को हम आदर की दृष्टि से देखते हैं। यह उसी पूतात्मा के उपदेशों का सुफल है कि हम अपने प्राचीन आदर्शों की पूजा करने को प्रस्तुत हैं और यूरोप के वीर पुरुष और योद्धा, विद्वान और दार्शनिक हमें अपने पंडितों, मनीषियों के सामने निरे बच्चे मालूम होते हैं। आज हम किसी बात को, चाहे वह धर्म और समाज-व्यवस्था से सम्बंध रखती हो या ज्ञान-विज्ञान से, केवल इसलिए मान लेने को तैयार नहीं है कि यूरोप में उसका चलन है। किन्तु उसके लिए हम अपने धर्मग्रंथों और पुरातन पूर्वजों का मत जानने का यत्न करते और उनके निर्णय को सर्वोपरि मानते हैं। और यह सब ब्रह्मलीन स्वामी विवेकानन्द के आध्यात्मिक उपदेशों का ही चमत्कार है।
स्वामी विवेकानंदजी का जीवन-वृत्तांत बहुत संक्षिप्त है। दुःख है कि आप भरी जवानी में ही इस दुनिया से उठ गए और आपके महान् व्यक्तित्व से देश और जाति को जितना लाभ पहुँच सकता था, न पहुँच सका। १८६३ ई० में वह एक प्रतिष्ठित कामराय कुल में उत्पन्न हुये। बचपन से ही होनहार दिखाई देते थे। अंग्रेजी स्कूलों में शिक्षा पायी और १८८४ में बी० ए० की डिग्री हासिल की। उस समय उनका नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। कुछ दिनों तक ब्रह्म-समाज के अनुयायी रहे। नित्य प्रार्थना में सम्मिलित होते और चूँकि गला बहुत ही अच्छा पाया था, इसलिए कीर्तन-समाज में भी शरीक हुआ करते थे। पर ब्रह्म-समाज के सिद्धांत उनकी प्यास न बुझा सके। धर्म उनके लिए केवल किसी पुस्तक से दो-चार श्लोक पढ़ देने, कुछ विधि-विधानों का पालन कर देने और गीत गाने का नाम नहीं हो सकता था। कुछ दिनों तक सत्य की खोज में इधर-उधर भटकते रहे।
उन दिनों स्वामी रामकृष्ण परमहंस के प्रति लोगों की श्रद्धा थी। नवयुवक नरेंद्रनाथ ने भी उनके सत्संग से लाभ उठाना आरंभ किया और धीरे-धीरे उनके उपदेशों से इतने प्रभावित हुए कि उनकी भक्त-मंडली में सम्मिलित हो गए और उस सच्चे गुरु से अध्यात्म तत्त्व और वेदान्त रहस्य स्वीकार कर अपनी जिज्ञासा तृप्त थी। परमहंसजी के देहत्याग के बाद नरेंद्र ने कोट-पतलून उतार फेंका और संन्यास ले लिया। उस समय से आप विवेकानन्द नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी गुरु-भक्ति गुरु-पूजा की सीमा तक पहुँच गई थी। जब कभी आप उनकी चर्चा करते हैं, तो एक-एक शब्द से श्रद्धा और सम्मान टपकता है। ‘मेरे गुरुदेव’ के नाम से उन्होंने न्यूयार्क में एक विद्वत्तापूर्ण भाषण किया, जिसमें परमहंसजी के गुणों का गान बड़ी श्रद्धा और उत्साह के स्वर में किया गया है।
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