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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


स्वामीजी मद्रास में थे, जब अमरीका में सर्व-धर्म-सम्मेलन के आयोजन का समाचार मिला। वह तुरंत उसमें सम्मिलित होने को तैयार हो गए, और उनसे बड़ा ज्ञानी तथा वक्ता और था ही कौन? भक्त-मंडली की सहायता से आप उस पवित्र यात्रा पर रवाना हो गए। आपकी यात्रा अमरीका के इतिहास की एक अमर घटना है। यह पहला अवसर था कि कोई पश्चिमी जाति दूसरी जातियों के धर्म-विश्वासों की समीक्षा और स्वागत के लिए तैयार हुई हो। रास्ते में स्वामी जी ने चीन और जापान भ्रमण किया और जापान के सामाजिक जीवन से बहुत प्रभावित हुए। वहाँ से एक पत्र लिखते हैं–

‘आओ, इन लोगों को देखो और जाकर शर्म से मुँह छिपा लो। आओ, मर्द बनो। अपने संकीर्ण बिलों से बाहर निकलो और जरा दुनिया की हवा खाओ।’

अमरीका पहुँचकर उन्हें मालूम हुआ कि अभी सम्मेलन होने में बहुत देर है। ये दिन उनके बड़े कष्ट में बीते। अकिंचनता की यह दशा थी कि पास में ओढ़ने-बिछाने तक को काफी न था। पर उनकी संतोष-वृत्ति इन सब कष्ट-कठिनाइयों पर विजयी हुई। अंत में बड़ी प्रतीक्षा के बाद नियत तिथि आ पहुँची। दुनिया के विभिन्न धर्मों ने अपने-अपने प्रतिनिधि भेजे थे, और यूरोप के बड़े-बड़े पादरी और धर्म-शास्त्र के अध्यापक, आचार्य हजारों की संख्या में उपस्थित थे। ऐसे महासम्मेलन में एक अकिंचन असहाय नवयुवक का कौन पुछैया था, जिसकी देह पर साबित कपड़े भी न थे। पहले तो किसी ने उनकी ओर ध्यान ही न दिया, पर सभापति ने बड़ी उदारता के साथ उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली, और वह समय आ गया कि स्वामीजी श्रीमुख से कुछ कहें। उस समय तक उन्होंने किसी सार्वजनिक सभा में भाषण न किया था।

एकबारगी ८-१॰ हजार विद्वानों और समीक्षकों के सामने खड़े होकर भाषण करना कोई हँसी-खेल न था। मानव-स्वभाववश क्षण-भर स्वामीजी को भी घबराहट रही, पर केवल एक बार तबियत पर जोर डालने की जरूरत थी। स्वामीजी ने ऐसी पांडित्यपूर्ण, ओजस्वी और धाराप्रवाह वक्तृता की कि श्रोतृमंडली मंत्रमुग्ध-सी हो गई। यह असभ्य हिंदू; और ऐसा विद्वत्तापूर्ण भाषण! किसी को विश्वास न होता था। आज भी इस वक्तृता को पढ़ने से भावावेश की अवस्था हो जाती है। वक्तृता क्या है, भगवद्गीता और उपनिषदों के ज्ञान का निचोड़ है। पश्चिम वालों को आपने पहली बार सुझाया कि धर्म के विषय में निष्पक्ष उदार भाव रखना किसको कहते हैं। और धर्मवालों के विपरीत आपने किसी धर्म की निंदा न की और पश्चिमवालों की जो बहुत दिनों से यह धारणा हो रही थी कि हिंदू तअस्सुब के पुतले हैं, वह एकदम दूर हो गई। वह भाषण ऐसा ज्ञान-गर्भ और अर्थ-भरा है कि उसका खुलासा करना असंभव है, पर उसका निचोड़ यह है–
 
‘हिंदू धर्म का आधार किसी विशेष सिद्धान्त को मानना या कुछ विशेष विधि-विधानों का पालन करना नहीं है। हिंदू का हृदय शब्दों और सिद्धान्तों से तृप्ति-लाभ नहीं कर सकता। अगर कोई ऐसा लोक है, जो हमारी स्थूल दृष्टि से अगोचर है, तो हिंदू उस दुनिया की सैर करना चाहता है; अगर कोई ऐसी सत्ता है, जो भौतिक नहीं है; कोई ऐसी सत्ता है, जो न्याय-रूप, दया-रूप और सर्वशक्तिमान है, तो हिंदू उसे अपनी अंतर्दृष्टि से देखना चाहता है। उसके संशय तभी छिन्न होते हैं, जब वह इन्हें देख लेता है।’

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