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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


धीरे-धीरे यहाँ भी स्वामीजी की भक्त-मंडली काफ़ी बड़ी हो गई। बहुत से लोग, जो अपनी रुचि का आध्यात्मिक भोजन न पाकर धर्म से विरक्त हो रहे थे, वेदांत पर लट्टू हो गए, और स्वामीजी में उनकी इतनी श्रद्धा हो गई कि यहाँ से जब वह चले, तो उनके साथ कोई अंग्रेज शिष्य थे, जिनमें कुमारी नोवल भी थीं, जो बाद को भगिनी निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुईं। स्वामी जी ने अंग्रेजों के रहन-सहन और चरित्र-स्वभाव को बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से देखा-समझा। इस अनुभव की चर्चा करते हुए एक भाषण में आपने कहा कि यह क्षत्रियों और वीर पुरुषों की जाति है।

१६ सितंबर १८९६ ई० को स्वामीजी कई अंग्रेज चेलों के साथ प्रिय स्वदेश को रवाना हुए। भारत के छोटे-बड़े सब लोग आपकी उज्जवल विरुदावली को सुन-सुनकर आपके दर्शन के लिए उत्कंठित हो रहे थे। स्वागत और अभ्यर्थना के लिए नगर-नगर में कमेटियाँ बनने लगीं। स्वामीजी जब जहाज से कोलम्बो में उतरे, तो जनसाधारण ने जिस उत्साह और उल्लास से आपका स्वागत किया, वह एक दर्शनीय दृश्य था। कोलम्बो से अलमोड़ा तक जिस-जिस नगर में आप पधारे, लोगों ने आपकी राह में आँखें बिछा दीं। अमीर-गरीब, छोटे-बड़े सबके हृदय में आपके लिए एक-सा आदर-सम्मान था। यूरोप में बड़े विजेताओं की जो अभ्यर्थना हो सकती है, उससे कई गुना अधिक भारत में स्वामीजी की हुई। आपके दर्शन के लिए लाखों की भीड़ जमा हो जाती थी और लोग आपको एक नजर देखने के लिए मंजिलें तै करके आते थे। क्योंकि भारतवर्ष लाख गया-बीता है, फिर भी एक सच्चे संत और महात्मा का जैसा कुछ आदर-सम्मान भारतवासी कर सकते हैं और किसी देश में संभव नहीं। यहाँ मन को जीतने और हृदयों को वश में करने वाले विजेता का, देश को जीतने और मानव-प्राणियों का एक रक्त बहाने वाले विजेता से कहीं अधिक आदर-सम्मान होता है।

हर शहर में जनसाधारण की ओर से आपके कार्यों की बड़ाई और कृतज्ञता-प्रकाश करने वाले मानपत्र दिये गए। कुछ बड़े शहरों में तो पंद्रह-पंद्रह बीस-बीस मानपत्र तक दिये गए और आपने उनके उत्तर में देशवासियों को देशभक्ति के उत्साह तथा अध्यात्म-तत्त्व से भरी हुई वक्तृताएँ सुनायीं। मद्रास में आपके स्वागत के लिए १७ आलीशान फाटक बनाए गए। महाराज रामनद ने, जिनकी सहायता से स्वामीजी अमरीका गये थे, इस समय बड़े उत्साह और उदारता के साथ आपके स्वागत का आयोजन किया। मद्रास के विभिन्न स्थानों में घूमने और अपने अमृत उपदेशों से लोगों को तृप्त, आह्लादित करते हुए २८ फरवरी को स्वामीजी कलकत्ते पधारे। यहाँ आपके स्वागत-अभिनंदन के लिए लोग पहले ही अधीर हो रहे थे। जिस समय आपका मानपत्र दिया गया, सभा में पाँच हजार से अधिक लोग उपस्थित थे। राजा विनयकृष्ण बहादुर ने स्वयं मानपत्र पढ़ा, जिसमें स्वामीजी के भारत का गौरव बढ़ाने वाले कार्यों का बखान किया गया था।

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