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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


मानसिंह के जाते ही राजा पूरनमल कंधोरिया पर चढ़ गया और उसके दर्प-दुर्ग को ध्वस्त कर दिया। राजा संग्राम-सिंह को भी तलवार के घाट उतारा और कुछ राजाओं को दबाकर बिहार को उपद्रव उठानेवालों से साफ़ कर दिया। इन विश्वस्त सेवाओं के पुरस्कार-स्वरूप उसको राजा की पदवी, शाही जोड़ा, सुनहरे जीन सहित घोड़ा और पंचहज़ारी का पद प्रदान किए गए।

पर ऐसे मनचले जोशीले राजपूत से कब चुप बैठा जाता था। सन् १५९॰ ई० में उसने घोड़े को एँड़ लगायी और उड़ीसा में दाखिल हो गया। उन दिनों यहाँ क़तलू खाँ पठान राज्य करता था। सामने के लिए तैयार हुआ, पर संयोगवश इस बीच पठानों में अनबन हो गई। क़तलू ख़ाँ क़तल हुआ, बाक़ी सरदारों ने अधीनता स्वीकार की और कई साल तक आज्ञाधारक बने रहें। पर अचानक उनकी हिम्मतों ने फिर सिर उभारा और बादशाही मुल्क पर चढ़ आए। इधर मानसिंह बेकारी से ऊब उठा था। बहाना हाथ आया। तुरंत सेना लेकर बढ़ा और दुश्मनों के इलाके में अकबरी झंड़ा गाड़ दिया। पठान बड़े जोश से मुकाबले को आये, पर राजपूत सूरमाओं के आगे एक भी पेश न गई। दम के दम में सुथराव हो गया और बिहार से लेकर समुद्रतट तक अकबरी प्रताप की पताका फहराने लगी।

राजा मानसिंह रण-विद्या में जैसा पंडित था, राजनीति के तत्त्वों से भी वैसा ही सुपरिचित था। उसकी गहरी निगाह ने साफ़ देख लिया था कि यह बेल मुंढे चढ़ने की नहीं। इस प्रकार कभी स्थिर न रह सकेगा, जब तक कि एक ऐसा नगर न बसाया जाय, जो दरियायी हमलों से सुरक्षित हो और ऐसे केन्द्रीय स्थान पर स्थित हो, जहाँ से चारों ओर आसानी से कुमक भेजी जा सके। अंत को बड़े बहस-मुबाहसे, सलाह-मश्विरे के बाद अकबर-नगर की नींव डाली गई। मानों जंगल में मंगल हो गया। कुछ ही वर्षों में नगर में ऐसी शोभा और चहल-पहल हो गई कि इंद्रजाल-सा मालूम होने लगा। यह नगर आज राजमहल के नाम से प्रसिद्ध है और जब तक धरा-धाम पर बना रहेगा अपने संस्थापक का नाम उजागर करता रहेगा। इस नगर के बीचों-बीच एक सुदृढ़ दुर्ग निर्माण कराया गया और पठानों को फिर सिर उठाने का साहस न हुआ। राजा ने चार ही पाँच साल के प्रयत्न और परिश्रम से सारे बंगाल से अकबर के चरणों पर माथा टेकवा दिया। खाँज़मा, खानखाना, राजा टोडरमल जैसे यशस्वी व्यक्तियों ने बंगाल पर जादू फूँके, पर वहाँ अधिकार जमाने में असफल रहे। ऐतिहासिकों ने इस गौरव का अधिकारी मानसिंह को ही माना है। इन सूबों में नवयुवक जगतसिंह ने भी मरदानगी के खूब जौहर दिखाए और सन् १५९८ ई० में पंजाब के पहाड़ी इलाके की सूबेदारी से सम्मानित किया गया। पर यह साल मानसिंह के लिए बड़ा ही मनहूस था। उसके दो बेटे ठीक चढ़ती जवानी में, जब जीवन के सुखों के उपभोग के दिन आ रहे थे, कालग्रास बने और बाप की आशाओं की कमर तोड़ गए।

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