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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


सन् १६१४ ई० में जहाँगीर ने एक विशाल सेना खाँजहाँ के सेनापतित्व में दक्षिण पर चढ़ाई करने को भेजी। मानसिंह भी, जो दरबार की उपेक्षा से खिन्न हो रहा था, इस मुहिम के साथ चला कि हो सके तो बुढ़ापे में जवानी का जोश दिखाकर बादशाह के दिल में जगह पाए। पर मौत ने यह अरमान निकलने न दिया। बेटों में केवल भावसिंह जीता था। जहाँगीर ने उसे मिर्ज़ा राजा की पदवी देकर चारहज़ारी के पद पर प्रतिष्ठित किया।

मानसिंह युद्ध-नीति और शासन-नीति दोनों का पंडित था और उनको सम्यक् प्रकार से काम में लाना जानता था। जिस मुहिम पर गया, विजय और कीर्ति लेकर ही लौटा। अफगानिस्तान के लोग अभी तक उसका नाम आदर के साथ लेते हैं। इन गुणों के साथ-साथ वह स्वभाव का विनम्र और मिलनसार था। सबके साथ सज्जनोचित व्यवहार करता। पीठ-पीछे लोगों की भलाई करता, प्रसन्नचित्त तथा विनोदप्रिय था। उसकी उदारता उस जमाने में बेजोड़ थी, जिसकी एक कथा इस प्रकार प्रसिद्ध है कि जब दक्षिण को मुहिम जा रही थी, बालाघाट स्थान में अन्न का ऐसा टोटा पड़ा कि एक रुपये के आटे में भी आदमी का पेट नहीं भरता था। एक दिन राजा ने कचहरी से उठकर कहा कि अगर मैं मुसलमान होता, तो एक समय हज़ार मुसलमानों के साथ भोजन करता। पर मैं सबमें बूढ़ा हूँ, सब भाई मुझसे पान स्वीकार करें। सबसे पहले खाँजहाँ लोदी ने हाथ सिर पर रखकर कहा कि मुझे स्वीकार है, फिर औरों ने स्वीकार किया। राजा ने एक सौ रुपया पंचहजारी का और इसी हिसाब से औरों का भोजन-व्यय बाँध दिया। हर रात को हर एक आदमी के पास एक ख़रीते में यह रुपया पहुँच जाता। ख़रीते पर उसका नाम लिखा होता। सिपाहियों को रसद पहुँचाने तक सस्ते दाम पर चीज़े मिलने का प्रबन्ध करता। रास्ते में मुसलमानों के लिए हम्माम और कपड़े की मस्जिद बनवाकर खड़ी कराता। इसी को औदार्य कहते हैं और दरियादिली इसी का नाम है। ‘बाग़ोबहार’ में शाहज़ादी बसरा की कहानी पढ़िए और उसकी तुलना उस ऐतिहासिक कथा से कीजिए।

राजा टोडरमल की तरह राजा मानसिंह भी मरते दम तक अपने बाप-दादों के धर्म पर दृढ़ रहा, पर कट्टरपन से उसके स्वभाव को तनिक भी लगाव नहीं था। धार्मिक असहिष्णुता करनेवाले व्यक्ति का अकबर के राज्यकाल में उत्कर्ष पाना असंभव ही था। अकबर ने एक बार मानसिंह से इशारतन धर्म-परिवर्तन का प्रस्ताव किया, उस पर राजा ने ऐसा उपयुक्त उत्तर दिया कि बादशाह को चुप हो जाना पड़ा। पुस्तकों में बहुत-से उल्लेख मिलते हैं, जिनसे प्रकट होता है कि राजा रसिकता, विनोदशीलता और चुटकुलेबाज़ी में भी औरों से दो कदम आगे था। यही गुण थे, जो उसके उत्कर्ष के सोपान थे। पर हमारी दृष्टि में तो उसका मूल्य और महत्त्व इसलिए है कि उसके घराने ने पहले-पहल दो परस्पर-विरोधी समुदायों को मिलाने का यत्न किया।

समाप्त


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