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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


पर सबसे बड़ी मुहिम, जिसने उसकी वीरता का सिक्का बिठा दिया और जिसमें उसने अपने जीवन के सात साल लगा दिये, बंगाल की चढ़ाई थी। खाँजमाँ ने सन् १५६७ ई० में अपनी करनी का फल पाया, और मुनइम खाँ ख़ानखानाँ उसकी जगह सेनापति बनाया गया। पर कुछ तो वह स्वभाव से ही शान्तिप्रिय था और कुछ बंगाल के अफ़गान युद्ध ने तूल खींचा। अन्त में शाही फ़ौज के लोग आठों पहर की दौड़धूप से ऊब गए और जी चुराने लगे। अकबर को इन सब बातों की गुप्त सूचना मिलती रहती थी। सोचा कि किसी ऐसे दृढ़चित्त और अनुशासनविद् व्यक्ति को बंगाल भेजे, जो सारी सेना को अनुशासन के शिकंजे में कसकर उसकी नसें ढीली कर दे। ऐसा आदमी टोडरमल के सिवा और कोई दिखाई न दिया। अतः राजा कुछ नामी योद्धाओं के साथ बंगाल को रवाना हुआ।

बंगाल में राजा टोडरमल ने वह-वह काम किए, जिनसे इतिहास के पन्ने सदा चमकते रहेंगे। यह उसी की बुद्धि विलक्षणता थी, जिसने सारे बंगाल में अकबर की दुहाई फिरवा दी। उसके एक हाथ में तलवार है, दूसरे में तेग़ा। काम की भीड़ से दम मारने की फुरसत नहीं। कहीं तो वह तलवार के जौहर दिखाता है, कहीं काग़ज़ी घोड़े दौड़ाता है, रण में जहाँ अड़ जाता, वहाँ से हटना नहीं जानता। सिपाहियों को ऐसा बढ़ाता, ऐसा ललकारता है कि हारी हुई लड़ाई जीत लेता है। यह उसी का दिल है कि तुर्क व तातारी सिपाहियों को धोखा देना, जिनकी घुट्टी में पड़ा हुआ है, कहीं मित्रोचित चेतावनी से, कहीं डरावे से, कहीं लालच से काबू में रखता है। उसकी सतत विजय ने पठानों के छक्के छुड़ा दिए। दाउद खाँ आख़िरी बार अपने दिल के अरमान निकालकर क़तल हुआ। बंगाल सूबे पर अकबरी पताका फहराने लगी और टोडरमल विजय की दुंदुभी बजाता, यश के घोड़े पर सवार राजधानी को लौटा और यथापूर्व मंत्रित्व के काम करने लगा। मोतमिदुद्दौला की उपाधि पायी और विद्या से और भी मान-सम्मान का अधिकारी हुआ।

इसी बीच खबर मिली कि वज़ीरखाँ की गुस्ताखी से गुजरात में गड़बड़ मच रही है। फौरन टोडरमल को हुक्म हुआ कि जाकर वहाँ की स्थिति को सुधारे। राजा साहब रवाना हुए और वहाँ पहुँचकर माल महकमें आदि की जाँच करने लगे। इतने ही में यह गुल खिला कि गुजरात के फ़सादियों ने बगावत मचा दी। वजीर खाँ की हिम्मत छूट गई। किला बन्द हो गया और साथ ही दूत दौड़ाये कि भागाभाग टोडरमल को खबर करें। राजा भला ऐसी खतरे और परेशानी की खबर सुनकर कब एक क्षण का विलम्ब सहन कर सकता था ? तुरन्त बाग़ियों पर धावा किया। वजीर खाँ को मर्द बनाकर किले के बाहर निकाला और दुश्मनों को दोलका के तंग मैदान में जा लिया। वहाँ खूब घमासान लड़ाई हुई। शत्रुपक्ष की नीयत थी कि राजा को ठिकाने लगाएँ। वह पहले ही घात लगाए बैठा था परन्तु राजा की सिंह सुलभ ललकार और वज्रघातिनी तलवार ने उसका सब तानाबाना तोड़ डाला। वह मुहिम मारकर यशोमण्डित राजधानी को लौटा और दूना मान-सम्मान प्राप्त किया।

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