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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


इसी बीच आस्ट्रिया और एशिया में युद्ध छिड़ गया। गेरीबाल्डी ने शत्रु को उधर फँसा देखकर अपनी उद्देश्य-सिद्धि के उपाय सोच लिए। ११ जून १८६६ ई० को वह अचानक जिनेवा में आ पहुँचा और आस्ट्रिया के विरुद्ध विप्लव खड़ा कर दिया। पहली ही लड़ाई में उसकी रान में ऐसा गहरा घाव लगा कि उसके योद्धाओं को पीछे हटना पड़ा। घाव भर जाने के बाद उसने कोशिश की कि फ्रांस के राज्य में चला जाए और उधर से शत्रु पर हमला करे। पर आस्ट्रिया की सेना ने यहाँ उसे फिर रोका और बड़ा घमासान युद्ध हुआ जिसमें विपक्ष ने करारी हार खायी। चूँकि आस्ट्रिया के लिए अकेले प्रशिया से ही निबटना आसान न था, इसलिए दक्षिण के युद्ध की अपेक्षा उत्तर की ओर ध्यान देना उसे अधिक आवश्यक जान पड़ा। अतः सुलह की बातचीत होने लगी और युद्ध की शुभ समाप्ति हुई। सुदीर्घ काल के बाद वेनिसवालों की कामना पूर्ण हुई और वह भी इटली का एक प्रान्त बन गया।

१८६७ ई० में गेरीबाल्डी ने फिर रोम पर हमला करने की तैयारियाँ शुरू कीं। इटली सरकार ने उसके रास्ते में बहुत रुकावटें डालीं और उसे कैद भी कर दिया, पर वह इन सब विघ्न-बाधाओं को पार करता हुआ अन्त में फ्लोरेंस में आ पहुँचा। इटली में अब पोप ही का राज्य ऐसा खण्ड रह गया था, जहाँ राष्ट्रीय शासन न हो, और गेरीबाल्डी की आत्मा को तब तक शान्ति नहीं मिल सकती थी, जब तक कि वह इटली की एक-एक अंगुल ज़मीन को विदेशी शासन से मुक्त न कर ले। यद्यपि उसने दो बार रोम को पोप के पंजे से निकालने का महाप्रयत्न किया, पर दोनों बार विफल रहा। ज्यों ही उसके फ्लोरेंस में आ पहुँचने की खबर मशहूर हुई, जनता में जोश फैल गया और कुछ ही दिनों में स्वयंसेवकों की ख़ासी सेना उसके साथ हो गई। पोप की सेना तैयार थी। युद्ध आरम्भ हो गया और यद्यपि पहली जीत गेरीबाल्डी के हाथ रही, पर दूसरी लड़ाई में फ्रांस और पोप के ख़ातिर तोप बन्दूक का सामना करता है और उसे प्रशिया के पंजे में पड़ने से बचा लेता है।

फ्रांस और प्रशिया में संधि हो जाने के बाद गेरीबाल्डी अपने घर लौट आया और चूँकि जाति को अब उसकी सामरिक योग्यता की आवश्यकता न थी, इसलिए अपने कुटुम्ब के साथ शान्ति से बुढ़ापे के दिन बिताने लगा। पर इस अवस्था में भी देश की ओर से उदासीन न रहता था, किन्तु उसके शिल्प और उद्योग की उन्नति के उपाय सोचने में लगा रहता था। १८७५ ई० में वह बालबच्चों के साथ रोम की यात्रा को रवाना हुआ। यहां जिस ठाट से उसका स्वागत हुआ, वह दुनिया के इतिहास में बेजोड़ घटना है। जब वह यहाँ से वापस चला, तो २० हजार आदमी पैदल, राष्ट्रीय गीत गाते-बजाते उसे बिदा करने आये। उसके जीवन के आत्मत्यागों के बदले में यही एक दृश्य पर्याप्त था।

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