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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


गद्य रचना
मौलाना ने गद्य लिखना प्रायः उस समय से आरंभ किया, जब वह सर सैयद के साहित्यिक सहकारी थे। सर सैयद की संगति के प्रभाव से उनके गद्य में यह विशेषता उत्पन्न हो गई कि प्रत्येक भाव को स्पष्टता के साथ प्रकट करते हैं। उनके वर्णन में कोई ऐसी ग्रंथि नहीं होती, जिससे पढ़नेवाले को अर्थबोध में कठिनाई पड़े। प्रत्येक विषय को प्रवाह के रूप में लिखते जाते हैं। जब जोश आता है, तो उबल पड़ते हैं और ऐसे अवसरों पर उनकी लेखनी से जो वाक्य निकल जाते हैं, वे अति प्रभावकारी और हृदयस्पर्शी होते हैं। अकारण अरबी के बड़े-बड़े शब्द लिखकर पाठक पर वह अपने पांडित्य की धाक जमाना नहीं चाहते। कहीं भी शब्दों की काट-छांट के पीछे नहीं पड़ते, नए-नए पदविन्यास रचकर पढ़नेवालों पर अपनी विद्वता का सिक्का बैठाना नहीं चाहते; किन्तु प्रत्येक विषय और प्रबन्ध को आदि से अन्त तक सरल और चलते ढंग से लिखना चाहते हैं। यह बात स्वयं विषय के अधिकार में है कि किसी जगह अपने-आप ओज की धारा बह निकले और उनके विचारों को अपने प्रवाह में बहा ले जाए। इच्छा और प्रयत्न का उसमें कोई दखल नहीं होता। सारांश, गद्य लेखन में वह सर सैयद की शैली के अनुगामी थे। अरबीदाँओं का समुदाय आजकल जिस प्रकार अरबीनुमा उर्दू लिखता है, उसको वह अपने लिए पसन्द न करते थे। हालांकि अगर वह चाहते, तो अपने प्रकांड पाण्डित्य और अरबी भाषा पर असाधारण अधिकार के सहारे क्लिष्ट से क्लिष्ट अरबी मिश्रित भाषा लिख सकते थे। वस्तुतः उन्हें ऐसी भाषा से बड़ी घबराहट होती थी।

चूँकि इन पंक्तियों के लेखक को मौलाना की सुहबत से लाभ उठाने के बहुत अधिक अवसर मिले हैं, महीनों एक जगह का उठना-बैठना रहा है, इसलिए इस विषय में उनकी रुचि प्रवृत्ति का विशेष रूप से पता है। अकसर ऐसा संयोग हुआ है कि मौलाना कोई दैनिक, साप्ताहिक या मासिक पत्र पढ़ रहे हैं, पढ़ते-पढ़ते किसी जगह रुक गए और अपने खास ढंग में उस रचना या शैली के दोष-गुण की समीक्षा आरम्भ कर दी या स्वर के उतार-चढ़ाव या लहजे के अदल-बदल से प्रशंसा वा निन्दा व्यंजित करने लगे। मौलाना की संगति में ऐसे अवसर बहुत ही मनोरंजक होते थे।

मौलाना जिस विषय को उठाते, अकसर उसके गंभीर ज्ञान का परिचय देते थे। इस प्रकार के निबन्धों में से ‘तुलसीदास की शायरी’, ‘अरब की शायरी’ औरंगाबाद (दक्षिण) से प्रकाशित होनेवाले त्रैमासिक ‘उर्दू’ में प्रकाशित होकर लोकप्रिय हो चुके हैं। उनके लेख ‘तहजिबुल अख़लाक़’, ‘इंस्टिट्यूट गज़ट’, ‘मआरिफ़’, ‘अलीगढ़ मन्थली’ आदि पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। यह सब इकट्ठा कर दिये जाएँ, तो एक अति सुन्दर साहित्यिक संग्रह तैयार हो सकता है।

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