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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


इसी बीच बम्बई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, और प्रोफेसरों को ताकीद हुई कि वह बी० ए० की सनद हासिल कर लें, नहीं तो नौकरी से अलग कर दिये जाएँगे। डाक्टर भांडारकर ने अवधि के अन्दर ही एम० ए० पास कर लिया और हैदराबाद सिंध के हाईस्कूल के हेडमास्टर नियुक्त हुए। साल भर बाद अपने पुराने शिक्षा स्थान रत्नागिरी स्कूल की हेडमास्टरी पर बदल दिये गए। यहाँ उन्होंने संस्कृत की पहली और दूसरी पोथियाँ लिखीं, जो बहुत लोकप्रिय हुईं। अब तक इनके बीसों संस्करण हो चुके हैं। संस्कृत भाषा का अध्ययन इनकी बदौलत पहले की अपेक्षा बहुत सुगम हो गया और इनका इतना प्रचार है कि किसी आरम्भिक विद्यार्थी का बस्ता उनसे खाली न दिखायी देगा। दस साल तक आप एल्फ़िन्स्टन और डेकन कालेज़ों में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की हैसियत से काम करते रहे। १८७९ में डॉक्टर कीलहाने के पदत्याग के अनन्तर डेकन कालेज में स्थायी रूप से प्रोफ़ेसर हो गए और तब से पेंशन लेने तक उसी पद पर बने रहे।

डॉक्टर भांडारकर ने पुरातत्व की खोज में विश्वव्यापक ख्याति प्राप्त कर ली है। उन्हें यह शौक क्योंकर पैदा हुआ, इसकी कथा बहुत मनोरंजक है, और उससे प्रकट होता है कि आप जिस काम को हाथ लगाते थे, उसे अधूरा नहीं छोड़ते थे। १८७० ई० में एक पारसी सज्जन को एक ताम्रपट हाथ लग गया। वह किसी पुराने खण्डहर में गड़ा था और उस पर प्राचीन काल की देवनागरी लिपि में कुछ खुदा हुआ था। उन्होंने उसे डॉक्टर भांडारकर को दिया कि शायद उसके लेख का कुछ मतलब निकाल सकें। डॉक्टर साहब उस समय तक प्राचीन लिपियों से अपरिचित थे, अतः उस लिखावट को न पढ़ सके। पर उसी समय प्राकृत लिपियों की जानकारी प्राप्त करने की धुन पैदा हो गयी।

यूरोपीय विद्वानों ने इस क्षेत्र में रास्ता बताने और दिखाने का ही काम नहीं किया है, उन्हें इसका उद्धारक भी समझना चाहिए। डॉक्टर भांडारकर ने इस विषय पर अनेक पुस्तकें इकट्ठी कीं और बड़ी तत्परता के साथ अध्ययन में जुट गए। फल यह हुआ कि उन्होंने साल भर के भीतर ही उस अभिलेख का अर्थ ही नहीं लगा लिया, विद्वानों की सभा में उस पर मारके का भाषण भी किया। यही नहीं, इस विषय से उन्हें अनुराग भी उत्पन्न हो गया और खोज-अनुसन्धान का कार्य आरंभ हो गया। प्राचीन इतिहास और पुरातत्व पर आपने कितने ही निबन्ध लिखे। प्राकृत भाषाएँ और हमारे प्राचीन इतिहास की समस्याएँ एक-दूसरे से इस तरह गुंथी हुई हैं कि एक को जानना और दूसरे से अपरिचित रहना असंभव है। अतः डॉक्टर भांडारकर ने प्राकृत पर भी भरपूर अधिकार प्राप्त कर लिया। १८७४ ई० लन्दन में प्राच्य विद्या विशारदों का एक सम्मेलन हुआ। आपको भी निमन्त्रण मिला। कुछ घरेलू अड़चनों से आप उसमें सम्मलित न हो सके; पर एक खोजपूर्ण निबंध भेजा, जिसके व्यापक अन्वेषण की बड़ी सराहना हुई।

१८७६ ई. में प्रोफ़ेसर विलसन के स्मारक स्वरूप प्राचीन भाषाओं के लिए वार्षिक व्याख्यान माला की व्यवस्था हुई और डॉक्टर भांडारकर इस उच्च पद पर नियुक्त किए गए। कई अँगरेज विद्वानों के मुकाबले उन्हें तरहीज दी गई। भारत में वही इस पद के सबसे बड़े अधिकारी थे। अपनी सहज तत्परता और एकाग्रता के साथ वह इस काम में जुट गए और संस्कृत, प्राकृत तथा आधुनिक भाषाओं पर उन्होंने जो व्याख्यान दिये, वह गंभीर गवेषणा और ऐतिहासिक खोज की दृष्टि से बहुत दिनों तक याद किए जाएँगे। उनकी तैयारी में डॉक्टर भांडारकर को कठोर श्रम करना पड़ा, पर ऐसी सेवाओं का जो अच्छे से अच्छा पुरस्कार हो सकता है, वह हाथ आ गया। विद्वानों ने दिल खोलकर दाद दी और सरकार को भी जल्दी ही अपनी गुणज्ञता का सक्रिय रूप में परिचय देने का अवसर मिल गया।

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