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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


सच तो यह है कि डॉक्टर भांडारकर सहज विद्यानुरागी थे। ज्ञान से उन्हें उत्कट प्रेम था; पर एक प्यास थी, जो किसी प्रकार न बुझती थी। प्रकृति ने उन्हें खोज और जाँच-पड़ताल की असाधारण योग्यता प्रदान की थी। किसी प्रश्न को हाथ में लेते, तो उसकी समीक्षा में तल्लीन हो जाते और उसकी जड़ तक पहुँचने की कोशिश करते। स्थूल ज्ञान से उनके अन्वेषण प्रिय स्वभाव को सन्तोष न होता था। आधे मन से उन्होंने कोई काम नहीं किया और अपने शिष्यों में भी इस दोष को कभी सहन नहीं किया। शास्त्रार्थ और वादविवाद में भी वे बड़े पटु थे। वह साधक-बाधक युक्तियों पर भली भाँति विचार करके तब कोई सिद्धान्त स्थिर करते थे और फिर समालोचना समीक्षा के तीखे से तीखे तीर भी उनका बाल बाँका नहीं कर सकते थे। पंडिताऊ हठ भी उनमें काफ़ी था और जब अड़ जाते, तो किसी तरह नहीं टलते थे। वह एक समय में एक ही विषय की ओर झुकते थे और अपने दिमाग़ की सारी ताक़त उसी में लगा देते थे। इसलिए जब कभी बहस की जरूरत होती, तो युक्ति-प्रमाण से पूरी तरह लैस होकर मैदान में उतरते थे।

अपने शिष्यों के साथ डॉक्टर भांडारकर का बर्ताव बहुत ही सौजन्य और सहानुभूति का होता था। अच्छे गुरु का कर्तव्य है कि अपने शिष्यों का पथ प्रदर्शक, मित्र और मंत्री हो। डॉक्टर भांडारकर ने इस आदर्श को सदा सामने रखा। होनहार लड़कों को आप आवश्यकतानुसार आर्थिक सहायता भी दिया करते थे। उनके छात्रों को उन पर पूरा भरोसा रहता था और वह अपनी सब कष्ट-कठिनाइयों में उन्हीं से सलाह लेते और उस पर अमल करते थे। अधिकांश अध्यापकों की तरह वह अपनी जिम्मेदारियों की सीमा लेक्चरर हाल तक ही नहीं मानते थे। विद्यार्थियों के लिए उनके मकान पर किसी समय रोकटोक न थी। एक सजीव उदाहरण से ज्ञान और सदाचार-शिक्षा के जो उद्देश्य सिद्ध हो सकते हैं, वे उपदेशों के बड़े-बड़े पोथों से भी नहीं हो सकते।

डॉक्टर भांडारकर अपने छात्रों के लिए सहानुभूति, सौजन्य और स्वाधीनता के सजीव दृष्टान्त थे। और चूँकि यह गुण दिखाऊ नहीं, किन्तु सहज थे, इसीलिए विद्यार्थियों के मन पर अंकित हो जाते थे। संस्कृत के अध्यापकों को अकसर यह शिकायत रहती है कि विद्यार्थी और विषयों की तुलना में संस्कृत की ओर कम ध्यान देते हैं, यद्यपि संस्कृत की ललित पदावली और कोमल कल्पनाएँ उनके लिए मनोरंजन की यथेष्ट सामग्री प्रस्तुत करती हैं। डॉक्टर भांडारकर को कभी यह शिकायत न हुई। उनके व्याख्यान सदा तन्मयता के साथ सुने जाते थे। कुछ तो विषय पर उनका पांडित्यपूर्ण अधिकार और कुछ उनका सहज उत्साह तथा विनोदशीलता विद्यार्थियों का ध्यान चुम्बक की तरह अपनी ओर खींच लेती थी। आपके विद्यार्थियों में बिरले ही ऐसे निकलेंगे, जिन्हें संस्कृत भाषा के माधुर्य का चस्का न पड़ गया हो।

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