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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


वह कहते थे, जब हम एक देश के निवासी और एक राज्य की प्रजा हैं, तो सबके लिए एक क़ानून होना चाहिए। उनमें किसी प्रकार की भेद दृष्टि रखना उचित नहीं। लार्ड रिपन ने इस माँग को न्यायसंगत माना और उनके संकेत से कौंसिल के एक सदस्य सर कोर्टनी अलबर्ट ने यह बिल पेश किया तथा सरकार ने उसे स्वीकार कर लिया। पर अँगरेजों को यह कब सहन हो सकता था कि वह अपने विशेष अधिकारों से वंचित हो जाएँ। वह अपने को इस देश का शासक समझते थे और भारतवासियों को तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। उनका दावा था कि हम सभ्यता में, जाति में, वर्ण (रंग) में भारत में बसने वालों से ऊँचे हैं और उनके शासक हैं। लार्ड रिपन के विरुद्ध उन्होंने जबरदस्त आन्दोलन उठाया। अँगरेजी अख़बारों में विरोध के लेख निकलने लगे। भाषणों में लार्ड रिपन पर खुली चोटें की जाने लगीं। अँगरेज़ों ने सरकारी जलसों और दावतों में शरीक होना भी बन्द कर दिया। यहाँ तक कि कुछ लोगों ने यह कुचक्र रच डाला कि लार्ड रिपन को पकड़कर ज़बरदस्ती जहाज पर सवार कराके लन्दन रवाना कर दिया जाए। अन्त में लार्ड रिपन को विवश हो, उस कानून में संशोधन करना पड़ा, जिससे उसका उद्देश्य ही नष्ट हो गया।

मिस्टर बदरुद्दीन ने उस समय के राजनीतिक कार्यों में क्रियात्मक भाग लिया और कितने ही भाषण किए। शायद ही कोई ऐसी सभा होती थी, जिसमें वह न बोलते हों। उनकी वक्तृताएँ सदा साफ़, सुलझी हुई और न्याय का पक्ष लिये हुए होती थीं। सन् १८८१ ई० में बम्बई के तत्कालीन गवर्नर सर जेम्स फ़र्गोनस ने आपको प्रान्तीय व्यवस्थापक सभा का सदस्य मनोनीत किया और आपकी लोकसेवा का क्षेत्र और भी विस्तृत हो गया।

१८८५ ई० में इंडियन नेशनल कांग्रेस का जन्म हुआ। यह शिक्षित और मध्यम वर्गवालों की राजनीतिक संस्था थी, जिसका उद्देश्य राजनीतिक अधिकारों की माँग पेश करना था। बदरुद्दीन इस संस्था के उत्साही कार्यकर्ता थे, और १८८७ ई० में उसके मद्रासवाले अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए। उस अवसर पर उन्होंने जो अभिभाषण पढ़ा, उसमें ऐसी बहुदर्शिंत ओजस्विता और निर्भीक स्पष्टवादिता का परिचय दिया कि सुननेवाले दंग रह गए। मिस्टर बदरुद्दीन केवल वचनवीर न थे, ठोस कामों में भी वह उसी उत्साह से योग देते थे।

१८७५ ई० में सर सैयद अहमद ने अलीगढ़ कालेज की नींव डाल दी थी, पर मुसलमानों में आमतौर पर उस समय नवीन ज्ञान-विज्ञान की ओर उपेक्षा का भाव था। मिस्टर बदरुद्दीन ने दिल खोलकर कालेज को आर्थिक सहायता दी और मुसलमानों में शिक्षा की उन्नति के लिए सब प्रकार यत्न करते रहे। कांग्रेस में मुसलमानों के सहयोग के सम्बन्ध में सर सैयद अहमद से आपका मतभेद था। सर सैयद का मत था कि मुसलमानों का कांग्रेस में शामिल होना ठीक नहीं है, क्योंकि शिक्षा में वह हिन्दुओं से पीछे हैं और कांग्रेस जिन सिद्धान्तों का प्रचार करती थी, उनके विचार से मुसलमानों को हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक हानि होने का डर था। बदरुद्दीन तैयबजी, सैयद खाँ के इन सिद्धान्तों और विचारों के कट्टर विरोधी थे। उनका मत था कि भारतवासियों को संयुक्त रूप से सरकार के सामने अपनी माँग पेश करनी चाहिए। सारांश, इन मतभेदों के रहते हुए भी मिस्टर बदरुद्दीन अलीगढ़ कालेज की सदा सहायता करते रहे।

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