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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


जस्टिस बदरुद्दीन बड़े ही स्वाभिमानी थे। अपने कर्त्तव्यों के पालन में वह सदा बहुत ही ऊँचा आदर्श अपने सामने रखते थे। अफ़सरों के प्रसाद के प्रलोभन या रोष के भय से वह कभी अपनी अन्तरात्मा का गला न घोटते थे। कांग्रेस के सुप्रसिद्ध नेता स्वर्गवासी पंडित बालगंगाधर तिलक पर जब सरकार ने राजद्रोह का मुक़दमा चलाया और वह दौरा सिपुर्द हुए, तो उनके वकीलों ने उन्हें जमानत पर छोड़ने की दर्ख्वास्त दी। वह दर्ख्वास्त जस्टिस बदरुद्दीन के इजलास पर पेश हुई। अधिकारियों का खयाल मिस्टर तिलक की ओर से खराब था और इस ‘सरकारी अपराधी’ की ज़मानत मंजूर करना निश्चय ही सरकार की अप्रसन्नता का कारण होता। जस्टिस बदरुद्दीन के लिए कठिन परीक्षा का प्रसंग था। आप न्यायासन पर विराजमान थे और न्याय-नीति से तिल भर भी हटना आपको सहन न था। अतः आपने तिलक जी की ज़मानत मंजूर कर ली। सारे देश में आपकी न्यायनिष्ठा की प्रसिद्धि हो गई।

जस्टिस बदरुद्दीन में स्वार्थ और स्वजाति का अभिमान कूटकूटकर भरा हुआ था। अपनी उचित आलोचना सुनने में तो आपको आपत्ति न थी, पर इनका अपमान असह्य था। काजी कबीरुद्दीन साहब ने आपके जीवन वृत्तान्त का वर्णन करते हुए एक घटना लिखी है, जो आपके जातीय स्वाभिमान पर प्रकाश डालती है। एक बार वक़फ़ (धर्मोत्तर सम्पत्ति) के मुकदमे में बम्बई के एडवोकेट जेनरल ने अदालत में कहा कि इस प्रश्न पर ‘मोहन उनला’ में संभवतः कोई फैसला नहीं है। जस्टिस बदरुद्दीन इसको सहन न कर सके और बोले–‘मिस्टर एडवोकेट जेनरल, यह कहने का साहस करना कि इस मसले पर व्यापक और सर्वांगपूर्ण ‘मोहन उनला’ में कोई फैसला नहीं है, इस पूजनीय विधान का अपमान करना है।’ इस पर एडवोकेट जेनरल ने तुरंत माफ़ी माँगी और कहा कि ‘मोहन उनला’ में कोई फैसला न होने से मेरा अभिप्राय केवल यह था कि मेरी पहुँच वहाँ तक नहीं है, अर्थात् उसका अँगरेज़ी में अनुवाद नहीं हुआ है।

एक दूसरे मौके पर अँगरेज़ बैरिस्टर ने किसी मुकदमे में कुछ यूरोपियन गवाह पेश करते हुए कहा–यह गवाह यूरोपियन होने के कारण दूसरे गवाहों की अपेक्षा, जो प्रतिष्ठित व्यापारी हैं, पर हिन्दुस्तानी हैं, अधिक विश्वसनीय हैं। जस्टिस बदरुद्दीन ने तुरन्त बैरिस्टर साहब की जबान पकड़ी और बोले–क्या आप सोचते हैं कि एक अँगरेज़ हर एक हिन्दुस्तानी से स्वभावतः अधिक सत्यवादी और प्रामाणिक होता है ? ऐसा कहना अदालत का अपमान है। बैरिस्टर साहब बहुत ही लज्जित हुए।

उस समय की इंडियन नेशनल कांग्रेस के आप सदा प्रशंसक और सहायक रहे। एक बार किसी बैरिस्टर ने कांग्रेस के विषय में कुछ अनुचित शब्द कहे। जस्टिस बदरुद्दीन ने उनसे तो कुछ न कहा, पर मुकदमे का फैसला लिखते हुए कांग्रेस के प्रति अपने सद्भाव को दुहराया और लिखा–कांग्रेस वह प्रभावशाली संस्था है, जो राष्ट्र की आवश्यकताओं और अंगों का सर्वोत्तम प्रकार से प्रतिनिधित्व करती है।

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