कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह) कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)प्रेमचन्द
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महापुरुषों की जीवनियाँ
सर सैयद अहमद खाँ
क्या राजनीतिज्ञ रूप में, क्या साहित्यसेवी रूप में, क्या मौलिक नेता तथा सुधारक के रूप में और क्या जातिसेवक रूप में, सर सैयद अहमद को जो अमर कीर्ति प्राप्त है, वह भारत की इस्लामी दुनिया में शायद ही किसी अन्य पुरुष को प्राप्त हो। हममें से हर एक का कर्तव्य है कि इस श्रद्धेय पुरुष के जीवन वृत्तान्त का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें और इसकी खोज करें कि उनमें वह कौन से गुण थे, जिनकी बदौलत वह इतनी मान-प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके और जाति की इतनी सेवा कर सके। उनकी अँगरेज़ी की योग्यता बहुत मामूली थी, वह घर के मालदार न थे, जाति में भी उनके समर्थकों की संख्या उनके विरोधियों से अधिक न थी। पर इन बाधाओं के होते हुए भी साहित्य-संसार और कर्मक्षेत्र दोनों में वह अपना नाम अमर कर गए। यह केवल जाति सेवा का उत्साह था, जिसने सारी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त की थी।
सैयद अहमद खाँ ७ अक्टूबर, सन् १८१७ ई० को दिल्ली में पैदा हुए। उनकी शारीरिक शक्ति लड़कपन में भी असाधारण थी; बौद्धिक दृष्टि से उनकी गणना साधारण विद्यार्थियों में ही थी। उस समय कौन यह निश्चित रूप से कह सकता था कि एक समय आएगा, जब यह बालक अपने देश और जाति के लिए गर्व का कारण होगा। उनकी पढ़ाई भी साधारण मुसलमान बच्चों की तरह कुरान शरीफ़ से हुई। उनकी उस्तानी एक भले घर की परदानशीन महिला थीं। इससे प्रकट होता है कि उस ज़माने में शरीफ़ घरानों में बच्चों की शिक्षा स्त्रियों ही को सौंपी जाती थी। आज यूरोप में आरम्भिक कक्षाओं में प्राय: स्त्रियाँ ही अध्यापन कार्य करती हैं। अपनी सहज कोमलता, धैर्य, सहनशीलता और वात्सल्य आदि गुणों के कारण वह स्वभावतः बच्चों की शिक्षा के लिए अधिक उपयुक्त होती हैं।
क़ुरान समाप्त करके सैयद अहमद खाँ ने फ़ारसी और अरबी की पढ़ाई प्रारम्भ की। १८-१९ बरस की उम्र में उन्होंने पढ़ना छोड़ दिया; पर किताबें पढ़ने का शौक उन्हें आजीवन रहा। दिल्ली का साम्राज्य उस समय केवल एक मिटा हुआ निशान रह गया था। बादशाह लाल किले में किसी तकियादार फ़कीर की तरह रहता था और अँगरेज सरकार की पेंशन पर गुजर कर रहा था। बाबर और अकबर की सन्तति अब एक प्रकार से दिल्ली में क़ैद थी। सैयद अहमद के पिता शाही दरबार में नौकर थे, पर उनकी मृत्यु के बाद तनख्वाह बन्द हो गई और सैयद अहमद खाँ को जीविका की चिन्ता उत्पन्न हुई। उन्होंने अँगरेज सरकार की नौकरी स्वीकार कर ली और १८३९ ई० में आगरा कमिश्नरी के नायब मुंशी नियुक्त हुए। यहाँ उन्होंने इतनी तत्परता से काम किया कि दो ही साल में मुंसिफ़ बना दिए गए और मैनपुरी में तैनात कर दिए गए। इसी समय उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘आसारुल सनादीद’ लिखी, जिसमें दिल्ली की पुरानी शाही इमारतों का वर्णन बड़ी खोज और विस्तार के साथ दिया गया है। इस ग्रन्थ की गणना उर्दू भाषा के ‘क्लासिक’- उत्कृष्ट स्थायी साहित्य में की जाती है।
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