कहानी संग्रह >> कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह) कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)प्रेमचन्द
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महापुरुषों की जीवनियाँ
उसी समय वहाँ दक्षिण के कुछ उदार हृदय, उत्साही देशभक्तों ने जनसाधारण की शिक्षा के लिए एक अँग्रेज़ी स्कूल खोला था और मिस्टर तिलक, मिस्टर आप्टे और अन्य महानुभावों के संरक्षण में ‘डेकन एजुकेशन सोसाइटी’ नाम से एक संस्था स्थापित हुई थी, जिसका उद्देश्य उच्च शिक्षा का प्रचार था। मिस्टर गोखले ने जीविका का और कोई उपाय न देख, इसी विद्यालय में एक पद स्वीकार कर लिया। आगे चलकर यही विद्यालय फ़र्गुसन कालेज के नाम से प्रसिद्ध हुआ और आज तक दक्षिण की सहानुभूति, देशसेवा के उत्साह और आत्मत्याग के सजीव स्मारक रूप में विद्यमान है। उक्त संस्था के प्रत्येक सदस्य को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी कि इस कालेज में बिना पारिश्रमिक का विचार किए, यथाशक्ति शिक्षण कार्य करता रहूँगा।
भारतवर्ष अनन्तकाल तक उन महानुभावों के आत्मत्याग का ऋणी रहेगा, जिन्होंने अपने निजी लाभ की ओर न देखकर अपना जीवन देशसेवा के लिए अर्पण कर दिया और जिनके सत्प्रयत्न के फलस्वरूप एक छोटा सा स्कूल आज देश का एक सुविख्यात और सुसम्मानित राष्ट्रीय महाविद्यालय है। प्रसन्नता की बात है कि देशसेवा का उत्साह, जिसने फ़र्गुसन कालेज को पाला-पोसा, आज हमारे ज्ञानलोक से वंचित प्रान्त में भी विशेष रूप से प्रकट हो रहा है और कुछ प्रगतिशील देशभक्तों ने सेंट्रल हिंदू कालेज के लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया है और उनकी यह तपस्या आगे चलकर अवश्य सफल होगी।
मध्यवित्त वर्ग के दूसरे नवयुवकों की तरह गोखले के हृदय में भी नाम-प्रतिष्ठा के अतिरिक्त धन-सम्पत्ति की भी आकांक्षा भरी हुई थी। यह नौकरी उन्होंने आवश्यकता से विवश होकर केवल अस्थायी रूप में स्वीकार कर ली थी। पर जब संस्था के सदस्यों के साथ उठने-बैठने, रहने-सहने और विचार-विनिमय का अवसर मिला, तो उनके उदार और सहानुभूतियुक्त विचारों का इन पर भी गहरा असर पड़ा। आप भी उसी रंग में रँग गए और देशसेवा की उमंग इतनी उमड़ी कि नाम, बड़ाई, धन-दौलत के हवाई क़िले क्षण में धराशायी हो गए। आप जैसे युवक के लिए जिसके पास न पैतृक सम्पत्ति थी और न आमदनी बढ़ाने का और कोई जरिया, इस शिक्षा संस्था के उद्योगों में हाथ बँटाना साधारण बात न थी—खासकर उस अवस्था में जबकि उन पर बहुतों के भरण—पोषण का भार हो। प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर करने से पहले कुछ समय तक आप बड़े पशोपेश में पड़े हुए थे, पर अंत में देश प्रेम की विजय हुई और आप डेकन एजुकेशन सोसाइटी में सम्मिलित हो गए, जिसका अर्थ यह था कि आप ७५ रुपये मासिक वेतन को उन्नति की चरम सीमा समझकर २० वर्ष तक शिक्षण कार्य करते रहें। इस त्याग से प्रकट हो सकता है कि आपकी दृष्टि में लोकहित का दरजा दूसरी लौकिक इच्छाओं की तुलना में क्या था। अब इस बात को सोचिए कि उस समय आपकी अवस्था कुल जमा १८ साल की थी, जब हृदय में उमंगों, आकांक्षाओं का सागर लहराता है, तो स्वीकार करना पड़ता है कि आप सचमुच देवता थे। ऐसे देशभक्त तो बहुत मिलेंगे, जो संसार के सुखभोग से परितृप्त हो जाने के बाद अन्त में थोड़े से दिन देशकार्य को दे दिया करते हैं; पर ऐसे कितने हैं, जो मिस्टर गोखले की तरह अपना तन, मन, धन सब राष्ट्र के चरणों पर समर्पण कर देने को प्रस्तुत हो जाएँ ?
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